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________________ भावार्थ-साधु के मुख्य गुणों को मूलगुण कहते हैं। 'मूल' का अर्थ है-जड़। जैसे जड़ के बिना पेड़-पौधा नहीं ठहर सकता, वैसे ही मूलगुण की क्रियाओं के बिना मुनि की स्थिति नहीं हो सकती। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं-पाँच महाव्रतों का धारण करना, पाँच समितियों का पालन करना, पाँच इन्द्रियों का निरोध करना, . केश-लोंच करना, छह आवश्यकों का पालन करना, वस्त्र का त्याग करना (नग्न रहना), स्नान न करना, भूमि पर सोना, दाँत नहीं धोना, खड़े होकर भोजन लेना, एक ही बार पाणिपात्र में आहार लेना। इनके पालन में प्रमादी होने पर निर्विकल्प सामायिक संयम के विकल्पों का अभ्यास नहीं होने से साधु सामायिक चारित्र से च्युत हो जाता है। (प्रवचनसार, गा. 208, 209) इनमें से एक भी मूलगुण कम .. होने पर साधुपना नहीं रहता। अतः वह डाल से चूके हुए बन्दर की भाँति अपने महान् साधुपद से नीचे गिर जाता है। यही कारण है कि आगम में यह व्यवस्था तथा मर्यादा है कि जो श्रमण नित्य ज्ञान-दर्शन की मर्यादा में रहकर मूलगुणों का पालन करता है, वही साधुता में पूर्ण होता है। (प्रवचनसार, गा. 214) ____ आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं कि मूलगुणों को छोड़कर केवल शेष उत्तरगुणों का पालन करने वालों का प्रयत्न मूलघातक होगा। क्योंकि उत्तर गुणों में दृढ़ता मूलगुणों के निमित्त से ही प्राप्त होती है। इसलिए यह प्रयत्न वैसा ही होगा, जिस प्रकार कि युद्ध में कोई मूर्ख योद्धा अपने सिर को छेदने वाले शत्रु के प्रहार की परवाह न कर केवल अँगुली के अगले भाग को खण्डित करने वाले वार से ही अपनी रक्षा करने का प्रयत्न करता हो। (प. पंचविंशति, 1, 40) अतः साधु में किसी भी समय न एक मूलगुण कम होता है और न अधिक। आचार्य कुन्दकुन्द 'मोक्षपाहुड' (गा. 98) में कहते हैं कि मूलगुण का छेद करने वाला साधु सच्चा सुख प्राप्त नहीं कर सकता। वरु विसु विसहरु वरु' जलणु वरु सेविउ वणवासु। णउ जिणधम्परम्मुहउ मिच्छत्तिय सहु वासु ॥22॥ शब्दार्थ-वरु-भले ही; विसु-विष; विसहरु-विषधर (साँप); जलणु-अग्नि; वरु-भले ही; सेविउ-सेवन करो, सेवो; वणवास-वनवास; णउ-नहीं (हो); जिणधम्मपरम्मुहउ-जैनधर्म से पराड्.मुख; मिच्छत्तियमिथ्यात्वी (का); सहु-संग, साथ; वासु-निवास। अर्थ-कदाचित विष, विषधर (साँप), अग्नि तथा वनवास का सेवन भला है, किन्तु जैनधर्म से पराङ्मुख मिथ्यादृष्टियों का संग भला नहीं है। 1. अ वरि; क जालजलणु; द, स वरु; ब वर; 2. अ, स मिच्छत्तिय; क, द मित्थतिय; व मिच्छते। 48 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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