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________________ गुणसारा-गुणसार; काएण - काया ( शरीर के) द्वारा; जा - जो; विढप्पइ - अर्जित की जाती, कमाई जाती है; सा किरिया - वह क्रिया; किण्ण - क्यों नहीं; कायव्वा - करनी चाहिए । अर्थ- चंचल, मैले, निर्गुण शरीर से यदि स्थिर, निर्मल और गुणसार क्रिया पैदा की जा सकती है, तो क्यों नहीं कमानी चाहिए? भावार्थ - जो शरीर मल-मूत्रादि से निरन्तर भरा रहता है, वह पवित्र कैसे हो सकता है ? इस शरीर में नौ द्वार हैं जिनसे मैला झरता रहता है । इस घिनावने शरीर के स्वरूप का पता न होने से उसके रूप-रंग आदि पर मोहित होकर उसके साथ रमण करता है। यद्यपि शरीर के भीतर आत्मा विराजमान है जो भावों के द्वारा तरह-तरह के नाटक करता है, किन्तु शरीर के भीतर होने पर भी वह उससे जुदा और परम पवित्र है । इसलिए साधु-सन्तों व योगियों को शरीर से प्रीति छुड़ाने के लिए ऐसा उपदेश दिया जाता है। इससे यह भी नहीं समझना चाहिए कि सद्गृहस्थों और श्रावकों के लिए यह व्याख्यान नहीं है । वास्तव में साधुओं के लिए मुख्य रूप से है और गृहस्थों के लिए भूमिका के अनुसार गौण है। लेकिन तथ्य तो यही है कि ऊपर अमल मल भर्यो भीतर, कौन विध घट शुचि कहे । बहु देह मैली सुगुन थैली, शौच गुन साधु लहे ॥ - पं. द्यानतराय मुनि योगीन्दुदेव तो यहाँ तक कहते हैं कि तीन लोक में जितने दुःख हैं, उनसे यह देह बना हुआ है; इसलिए यह दुःख रूप है । टीकाकार यह कहते हैं कि तीन लोक में जितने पाप हैं, उन पापों से यह शरीर निर्मित है, इसलिए यह पाप रूप ही है। उम्मूलिवि ते मूलगुण उत्तरगुणहिं' विलग्ग । वाण्णर जेम पलंबचुय बहुय पडेविणु भग्ग ॥21॥ शब्दार्थ - उम्मूलिवि-उन्मूलन कर; ते - जो; मूलगुण उत्तरगुणहिंमूलगुणों और उत्तरगुणों (से); विलग्ग - अलग, वाण्णर - वानर, बन्दर; जेम-जिस प्रकार; पलंबचुय-डाल (से) च्युत; बहुय - बहुत ; पडेविणु-पड़कर, गिरकर, भग्ग - भग्न, घायल | अर्थ- जो साधु मूलगुणों को खण्डित कर उत्तरगुणों से अलग हो जाता है, वह डाल से चूके हुए बन्दर के समान बहुत नीचे गिरकर भग्न / घायल हो जाता है । 1. अ, क, द उत्तरगुणहिं; ब, स उत्तरगुणह । पाहुडदोहा : 47
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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