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विसया-सुह' दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि। भुल्लउ जीव म बाहि तुहं अप्पाखंधि कुहाडि ॥18॥
शब्दार्थ-विसया- सुह-विषयों के सुख; दुइ-दो; दिवहडा-दिन (के); पुणु-फिर; दुक्खहं-दुःख की; परिवाडि-परिपाटी (है); भुल्लउ-भोले; जीव; म बाहि-मत मारो; तुहुं-तुम; अप्पा-खंधि-अपने कन्धे पर; कुहाडि-कुल्हाड़ी। ___अर्थ-विषयों के सुख तो दो दिन के हैं। फिर, दुक्खों की परिपाटी चलेगी। इसलिए हे भोले जीव! तुम अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी मत मारो।
भावार्थ-पाँचों इन्द्रियों के विषयों के सुख भी विविध प्रकार के हैं। भले ही उनमें विविधता हो, लेकिन वे टिकते नहीं हैं; बदलते रहते हैं। दो दिन' कहने का अर्थ गिनती के दो दिन नहीं हैं, किन्तु अल्प समय के हैं। वास्तव में इन्द्रियों के विषय-सुख क्षणभंगुर हैं। विषयों के सुख-भोग प्राणियों को बार-बार दुर्गति में दुःख देने वाले हैं। इनका सेवन करना अपना विनाश करने के समान है। जैसे अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी मारने से अपना मरण हो सकता है, वैसे ही विषयों के सुख नरक में डुबोने वाले हैं।
उक्त दोहा ‘परमात्मप्रकाश' में द्वितीय अधिकार में दोहा संख्यक 138 है। उसमें कहा गया है कि ये विषय क्षणभंगुर हैं, बारम्बार दुर्गति के दुःख के देने वाले हैं, इसलिए विषयों का सेवन करना अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी का मारना है अर्थात् नरक में अपने को डुबोना है-ऐसा व्याख्यान जानकर विषय-सुखों को छोड़, वीतराग परमात्म-सुख में ठहरकर निरन्तर शुद्धोपयोग की भावना करनी चाहिए। शुद्धोपयोगियों के ही पाँचों इन्द्रियों और मन के रोकने रूप संयम व तप होते हैं। शुद्धोपयोग विकल्प की निवृत्तिरूप होता है और जिसके होने पर कर्म का क्षय होता है। सभी प्रकार के शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्पों से रहित जीव का शुद्ध भाव ही सच्चे सुख व मोक्ष का वास्तविक मार्ग है।
1. अ, द, व विसयसुहा; क, स विसइ सुहइं; 2. अ दिउडहा; क, द, ब, स दिवहडा; 3. अ अप्पउ खंधि; क अप्पाक्खंधि; व अप्पाक्खंध; दस अप्पाखंधि।
पाहुडदोहा : 45