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सप्पें मुक्की कंचुलिय जं विसु तं ण मुएई। भोयह भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ ॥16॥
शब्दार्थ-सप्पें-साँप के द्वारा; मुक्की-छोड़ी गई; कंचुलिय-केंचुली; जं-जो; विसु-विष, जहर; तं-उसे; ण-नहीं; मुएह-छोड़ता है; भोयह-भोग (विषयभोग) का; भाउ-भाव; ण परिहरइ-नहीं छोड़ता है; लिंगग्गहणु करेइ-लिंग (पहचान) ग्रहण करता है अर्थात् भेष बदलता है।
अर्थ-जिस प्रकार साँप केंचुली को छोड़ देता है, लेकिन विष को नहीं छोड़ता है; उसी प्रकार अज्ञानी जीव द्रव्यलिंग धारण कर बाहर में त्याग करता है, किन्तु भीतर में से विषय-भोगों की भावना को नहीं छोड़ता।
भावार्थ-बाहर से भेष बदलना या तरह-तरह के परिवर्तन कर त्याग का नियम लेना एक अलग बात है और सहज स्वाभाविक रूप से उसका रस क्षीण हो जाना या उस वृत्ति की रुचि समाप्त हो जाना वास्तविक त्याग है। यदि हम नियम ले लेते हैं और उसके अनुसार बाह्य आचार का पालन भी करते हैं; लेकिन जिसका त्याग किया है, उसके प्रति यदि राग भाव, आसक्ति या लगाव बना रहता है, तो वास्तव में वह त्याग नहीं है। त्याग पहले भीतर से होता है और फिर बाहर का होता है। मुनि रामसिंह ने बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त से साँप का उल्लेख किया है कि वास्तव में सर्प जहरीला होता है, इसलिए केंचुली को उतार देने पर भी उसका विष कम नहीं होता है। हम आजकल के जीवन में भी यही देखते हैं कि धार्मिक कर्म-क्रियाओं को करते-करते लोगों के सत्तर-अस्सी वर्ष निकल जाते हैं, लेकिन क्रोध, मान, माया, लोभं आदि अणु मात्र भी नहीं निकलते हैं, कम नहीं होते हैं। यथार्थ में केवल बाहर का त्याग त्याग नहीं है और न केवल भीतर का राग-द्वेष का त्याग कहने से त्याग होता है; परन्तु भीतर से राग छूटने पर ही त्याग सच्चा त्याग कहा जाता है। जैनधर्म के अनुसार त्याग भीतर से होता है-ममत्व (मेरा मन) भाव छोड़ने पर होता है। ममत्व भाव छूटे बिना व्यवहार से भी वास्तविक त्याग नहीं होता।
1. अ सप्पें; क, द, ब, स सप्पिं; 2. अ मुंकिय; क, द, ब, स मुक्की ; 3. अ, क मुएइ, द, व मुवेइ स मुवइ; 4. अ भोयह; क, ब भोयहिं, द, स भोयह; 5. अ, द, स लिंगग्गहणु; क लिंगागहणु, ब लिंगग्गहणं; 6. अ, द, ब धरेइ; क, स करेइ।
पाहुडदोहा : 43