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________________ केवलणाणु-केवलज्ञान; वि-भी; परिणवइ-परिणमन करता है; अंबरि-आकाश (निर्विकल्प), ध्रुव आत्म-स्वभाव; जाह-जिसका; णिवासु-निवास। ___ अर्थ-आकाश (ध्रुव स्वभाव) में जिसका वास हो जाता है, उसका मोह नष्ट हो जाता है, मन मर जाता है, श्वासोच्छ्वास छूट जाता है, टूट जाता है; केवल केवलज्ञान रूप परिणमन करता है। भावार्थ-यहाँ पर केवलज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, यह बतलाते हैं। यद्यपि विकल्प सहित अवस्था में शुरुआत करने वालों के चित्त की स्थिरता के लिए और विषय-कषाय रूप खोटे ध्यान को रोकने के लिए जिनप्रतिमा, मन्त्र आदि ध्याने योग्य हैं, किन्तु निश्चय ध्यान के समय निज शुद्धात्मा ही ध्यान करने योग्य है। क्योंकि शुभ-अशुभ विकल्प तो संसार के कारण हैं। मुनि योगीन्दुदेव भी यही कहते हैं कि जो विकल्परहित ब्रह्मपद को ध्याते हैं, उन योगियों की मैं बार-बार मस्तक नवाकर. पूजा करता हूँ। सच्चा योगी ही अनादिकाल के शुद्ध चैतन्य रूप निश्चय प्राणों का घात करने वाले मिथ्यात्व-रागादि रूप विकल्प-समूह को अपने स्वरूप-नगर से निकाल देता है। जब तक वह उनको उजाड़ता नहीं है, तब तक विकल्प-जाल में उलझा रहता है। (परमात्मप्रकाश, अ. 2, दो. 160) यथार्थ में निर्विकल्प समाधि की साधना करने वाला सच्चा योगी है। यद्यपि 'अम्बर' शब्द का अर्थ आकाश है, लेकिन यहाँ पर वह प्रतीक रूप में निर्विकल्प समाधि का वाचक है। यथा णास-विणिग्गउ सासडा अंबरि जेत्थु विलाइ। तुट्टइ मोहु तडत्ति तहिं मणु अत्थवणहं जाइ ॥ प. प्र., 2, 162 अर्थात्-यदि नाक से निकलने वाली साँस निर्विकल्प समाधि में लय को प्राप्त हो जाए, तो उसी समय झट से मोह टूट जाता है और मन स्थिर हो जाता वास्तव में निज स्वभाव में मन की चंचलता नहीं रहती। क्योंकि बाहरी ज्ञान से शून्य निर्विकल्प समाधि में विकल्पों का आधारभूत मन अस्त हो जाता है। इसके सिवाय केवलज्ञान की उपलब्धि के लिए अन्य कोई साधना रूप उपाय नहीं है। बाहर में आसन लगाना, माला फेरना, जप करना आदि बाहरी साधन हैं जो मन की चंचलता को रोकने के साधन मात्र हैं। यथार्थ में आत्म-स्वभाव में स्थिर होने पर ही एकाग्रता तथा धर्मध्यान की वास्तविक स्थिति (उत्कृष्ट ध्यान) प्राप्त होती है। 42 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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