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________________ में; णिम्मलि-निर्मल में; करहि-करो; रइ-रति (प्रेम); घरु-परियणुघर-परिजन; लहु-शीघ्र; छंडि-छोड़ो। ___ अर्थ-हे मूढ! (बाहर में) यह सब कर्म कृत है। अतः प्रकट रूप से तुम भूसे को मत कूटो। शीघ्र ही घर-परिजन को छोड़कर निर्मल मोक्षमार्ग में प्रीति करो। भावार्थ-हे मूढ जीव! निज शुद्धात्मा के सिवाय अन्य सब विषय-कषाय आदिक विनाशशील हैं। यह पहले ही कह चुके हैं कि पाँचों इन्द्रियों के विषय असार हैं। इस मूर्ख ने अनादि काल से इनसे ही प्रीति जोड़ी है। इन विषयों के खातिर ही घरवालों से, कुटुम्बी जनों से मोह करता है। लेकिन ये सभी कृत्रिम तथा विनश्वर हैं। केवल एक शुद्ध आत्मा ही नित्य, अविनश्वर है। यद्यपि पाँचों इन्द्रियाँ भिन्न हैं, मन और राग-द्वेष, मोह आदि परिणाम अन्य हैं तथा चारों गतियों के दुःख भी अन्य हैं; क्योंकि ये सभी कर्म से उत्पन्न हुए हैं जो जीव से भिन्न हैं; तथापि यह जीव विषयाभिलाषा आदि को लेकर रात-दिन विकल्पों में उलझा हुआ रहता है। यह सच है कि कर्म के कारण जीव तरह-तरह के विकल्प करता है और उनसे ही पुण्य-पाप का संचय तथा बन्ध होता है। यही नहीं, संसार के सभी दुःख-सुख कर्म से उत्पन्न होते हैं। सही अर्थ में तो जीव जानने, देखने वाला है। इसलिए आत्मा का स्वरूप जानन...जानन है। यह आत्मा जिस रूप का चिन्तन करता है, और उससे जुड़ता है, उस रूप परिणमन करता रहता है। अतएव निज शुद्धात्मा को प्राप्त करने वालों को यही योग्य है कि रागादि विकल्पों की ओर से दृष्टि को हटाकर निज शुद्धात्मा का ध्यान करें। जिसका ध्यान किया जाता है, वह उसी रूप परिणमन करता है। जैसे गारुड़ी आदि मन्त्रों से गरुड़ रूप आसन होता है, उससे सर्प भी डर जाता है, वैसे ही उपयोग में जैसी परिणति होती है, वैसा ही भासित होता है। कहने का अभिप्राय यह है कि सुख-आराम प्राप्ति हेतु भावों के विकल्प-जाल से हटकर ज्ञानानन्द स्वभावी निज शुद्धात्या का चिन्तन, मनन, ध्यान करना चाहिए। यह दोहा. 'परमात्मप्रकाश' (अ. 2, दो. 128) में द्वितीय अधिकार में उपलब्ध होता है। मोहु. विलिज्जइ' मणु मरइ तुट्टइ सासु-णिसासु। - केवलणाणु वि परिणवइ अंबरि जाह णिवासु ॥15॥ शब्दार्थ-मोहु-मोह; विलिज्जइ-विलीन हो जाता है; मणु-मन; मरइ-मर जाता है; तुट्टइ-टूट जाता है; सासु-णिसासु-श्वासोच्छ्वास; 1. व क्लिज्जइ क, द, ब, स विलिज्जइ। पाहुडदोहा : 41
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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