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________________ इच्छा अनेक प्रकार की पाई जाती हैं। एक इच्छा पाँच इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने की होती है जो देखी-जानी जाती है। उदाहरण के लिए, रूप-रंग, आकार-प्रकार देखने की, राग-रागिनी सुनने की और जो प्रकट नहीं है, उस को जानने की इच्छा होती है। उस इच्छा में कोई पीड़ा नहीं होती; लेकिन जब तक देखना-जानना नहीं होता, तब तक आकुलता बनी रहती है। इस इच्छा का नाम ही कषाय है। एक अन्य इच्छा कषाय के भावों के अनुसार काम करने की है। काम करने की इच्छा में तो कोई पीड़ा नहीं है, लेकिन जब तक इच्छा के अनुसार काम नहीं हो जाता, तब तक व्याकुलता बनी रहती है। एक इच्छा पाप के उदय से बाहर में अनिष्ट कारणों को उपस्थित होने पर उनको दूर करने की होती है। उदाहरण के लिए, . भूख-प्यास, रोग, पीड़ा आदि। इस इच्छा के होने पर प्राणी पीड़ा ही मानता है। इन तीनों प्रकार की इच्छा होने पर सम्पूर्ण जगत् दुःख मानता है। इन तीनों तरह की इच्छाओं के अनेक प्रकार हैं। इन सबका साधन एक साथ नहीं बन सकता है। इसलिए एक को छोड़कर अन्य की पूर्ति करने में लगता है, फिर उसे भी छोड़कर अन्य को पूरा करने में लगता है। इस प्रकार सभी तरह की इच्छाएँ किसी की भी पूर्ण नहीं होतीं। इच्छा रूपी रोग मिटाने के लिए सभी प्राणी रात-दिन उपाय करते हैं, लेकिन दुःख कुछ ही घटता है; मिटता नहीं है। इस कारण वह दुःख ही कहा जाता है। एक वह भी इच्छा होती है जिसमें तीनों प्रकार की इच्छा घटने से सुख कहा जाता है। नरक में रहने वालों के तीव्र कषाय होने से इच्छा बहुत होती है। देवों के मन्द कषाय होने से इच्छा अल्प होती है। अल्प इच्छा वाले को सुखी कहते हैं। वास्तव में तो देवादिक के सुख मानना भ्रम ही है। क्योंकि उनके चौथी तरह की इच्छा की मुख्यता है, जिससे आकुलता होती रहती है। यथार्थ में जहाँ इच्छा है, वहीं आकुलता है और जो आकुलता है, वही दुःख है। इस तरह सभी संसारी जीव घर-गृहस्थी में अनेक प्रकार के दुःखों से पीड़ित होते रहते हैं। इसलिए सच में घर-गृहस्थी में रहना दुःख का पाश है। मूढा सयलु वि कारिमउ मं फुडु तुहं तुस कंडि' । सिवपहि णिम्मलि करहि रइ घरु-परियणु लहु छंडि ॥14॥ शब्दार्थ-मूढा-मूढ़ लोगों (सम्बोधन); सयलु वि-सभी (कुछ); कारिमउ-कार्मिक, कर्म-रचित; मं-मत; फुडु-स्फुट रूप से (प्रकट); तुहुं-तुम; तुस-धान्य का छिलका; कंडि-कूटो; सिवपहि-मोक्षमार्ग (शिव-पथ) 1. अ, द, स तुस कंडि; क, ब तुस खंडि; 2. अ, क, ब, स सिवपहि; द सिवपइ; 3. अ रई क, द, ब, स रइ। 40 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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