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करने वाले के क्लेशकारक या भयकारक खोटे ध्यान होते हैं। खोटे ध्यान से खोटे या अशुभ कर्म बँधते हैं, जिनका फल खोटी गति प्राप्त करता है। खोटे या बुरे भाव करने वाला नियम से दुर्गति को प्राप्त होता है। इसलिए जो चिन्ता करता है, वह कर्मों से बँधता है। चिन्ता हमेशा पर (जो आत्मा से भिन्न है) की की जाती है, किन्तु चिन्तन निज शुद्धात्मा का होता है। आत्म-चिन्तन कर्म के झड़ने में कारण है; किन्तु चिन्ता चाहे शरीर की हो या अन्य की, उससे कर्म बँधते हैं। अपनी आत्मा की चिन्ता का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि आत्मा अजर, अमर, त्रिकाल, ध्रुव अपने स्वरूप को लिए हुए है। बाहर की चाहे जितनी परिस्थितियाँ तथा दशा बदल जाएँ; किन्तु आत्मा अपने स्वरूप को कभी नहीं बदलता है। स्वरूप से पहले भी ऐसा था, आज है और आगे भी इसी रूप में रहेगा। इसलिए सबकी चिन्ताएँ छोड़कर अपने स्वभाव का चिन्तन, स्मरण, ध्यान करना चाहिए। निज शुद्धात्मा के ध्यान, चिन्तन से ही सच्चे सुख की प्राप्ति हो सकती है। इसके सिवाय वास्तविक सुखी होने का अन्य कोई उपाय नहीं है।
यह दोहा ‘परमात्मप्रकाश' (2, 124) में द्वितीय अधिकार में मिलता है। इसमें कहा गया है कि चिन्ता करता हुआ कोई भी प्राणी सच्चे सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि जहाँ चिन्ता है, वहाँ आकुलता है, आकुलता है सो तरह-तरह की इच्छाओं की उत्पत्ति है और इच्छा है सो दुःख है। एक इच्छा पूरी नहीं हो पाती है कि अनेक मुँह खोले खड़ी रहती हैं। इच्छाएँ अनन्त होने से उनकी पूर्ति होना कभी सम्भव नहीं है। आज तक चक्रवर्ती तथा महान् सम्राट भी जब अपनी इच्छाओं की पूर्ति नहीं कर सके, तो फिर हम जैसे उनको कैसे पूर्ण कर सकते हैं?
. घरवासउ मा जाणि जिय दुक्कियवासउ एहु। पासु कयंते मंडियउ अविचलु णीसंदेहु' ॥13॥
शब्दार्थ-घरवासउ-घर का वासा; मा जाणि-मत जानो; जिय-जीव; दुक्कियवासउ-दुष्कृत-वास (पापों में वसा हुआ); एहु-यह; पासु-पाश, जाल; कयंते (कृतान्त) यमराज के द्वारा; मंडियउ-मांडा गया, फैलाया गया; अविचलु-दृढ़; णीसंदेहु-निःसन्देह। . अर्थ-हे जीव! इसे गृहवास मत जानो। यह तो दुष्कृतवास (पापों में वसा हुआ) है। यह निःसन्देह है कि यम (आयुकम) के द्वारा फैलाया गया यह अविचल, निश्चल जाल है।
भावार्थ-मनुष्य जीवन में प्रत्येक समय में कोई-न-कोई इच्छा बनी रहती है। .. 1. अ, स णीसंदेहु; क, द, ब णवि संदेहु।
पाहुडदोहा : 39