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________________ वास्तव में वस्तु तो जैसी है, वह हमेशा वेसी ही रहेगी। लेकिन हमारी मनःस्थिति में परिवर्तन होने से वह हमें भिन्न रूप में दिखलाई पड़ती है। नदी का किनारा, चाँदनी रात, ठण्डी बयार सब कुछ शीतल होने पर भी वियोग की अग्नि में तपने वाले के लिए बिछोह की परिस्थिति में चारों ओर ताप - संताप दायक ही नजर आती है । यह सब मोह का प्रभाव, मिथ्या मान्यता का पसारा है, जिसके अधीन होकर बौद्धिक व्यक्ति भी वस्तु-स्वरूप को भूल जाता है; यथार्थ स्वरूप का निर्णय नहीं कर पाता है। यथार्थ स्वरूप से मतलब है - वस्तु - स्वरूप से । वस्तुतः हम वस्तु को वस्तु-स्वरूप से न समझकर उसकी अवस्थाओं के माफिक समझते हैं। जो परिस्थिति या दशा हमारे अनुभव में आती है, हमें प्रत्यक्ष दिखलाई पड़ती है, उसे ही हम सत्य-स्वरूप समझते हैं; लेकिन सत्य वह है जो वस्तु का स्वरूप है। मोह के कारण हमारी पर्याय-दृष्टि या बाहरी अवस्थाजन्य दृष्टि होने से जो कुछ हमारे बाहरी जीवन में परिवर्तन हो रहा है, उसे ही सत्य मानते हैं । परन्तु बाहर में जो कुछ भी घट रहा है, वह भीतर के कर्मोदय का प्रतिबिम्ब है - यह हमारी समझ से बाहर है । : इसलिए हमारी सुख-दुःख की मान्यता सही नहीं है। वास्तव में सुख-दुःख हमारे माने हुए मन के माफिक हैं। इसलिए जो परिस्थिति बनती या बिगड़ती है, उससे अपने को जोड़कर हम सुखी या दुःखी होते हैं । लेकिन वस्तु-स्वरूप की दृष्टि से देखा जाए तो सुख-दुःख वास्तविक नहीं हैं; काल्पनिक हैं। लेकिन अज्ञानी प्राणी उनको वास्तविक समझता है। मोक्खु ण पावहि जीव तुहुं धणु-परियणु चिंतंतु तोउ' वि चिंतहि तउ वि' तउ पावहि सुक्खु महंतु ॥12॥ शब्दार्थ - मोक्खु - मोक्ष ( को ); ण-नहीं; पावहि - पाता है; जीव; तुहुँ- तुम धणु-परियणु - धन - परिजन; चिंतंतु- चिन्ता करते हुए; तोउ वि-तो भी; चिंतहि-चिन्ता करते हो; तउ वि - तब भी, तदापि; तउ – वह; पावहि - पाओ, प्राप्त करो; सुक्खु - सुख; महंतु - महान् । अर्थ - हे जीव ! तुम धन और परिवार के लोगों की चिन्ता करते रहते हो, इसलिए कर्म से छुटकारा नहीं पा सकते। अब तुम निज शुद्धात्मा का चिन्तन करो, जिससे महान् सुख को प्राप्त करोगे । भावार्थ - घर-गृहस्थी में रहने वाला रात-दिन परिवार के भरण-पोषण, धन कमाने और रोगादि से बचाने, ठीक होने आदि की चिन्ता करता रहता है । चिन्ता 1. अ, स तोउ वि; क, द, ब तो इ वि; 2. अ, क, स वि; द, ब जि; 3. अ, क, ब, स सोक्खु द सुक्खु । 8 : हु
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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