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लेकिन कर्म शाश्वत, नित्य एवं ध्रुव नहीं हैं। आत्मा नित्य, ध्रुव एवं त्रैकालिक है। चैतन्य आत्मा सदा काल चेतन ही रहती है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में
एगो मे सासदो अप्पा, णाण-दसण लक्खणो।
सेसा मे बाहिरो भावो, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ अर्थात्-ज्ञान-दर्शन जिसका लक्षण है, वह एक आत्मा ही मेरी शाश्वत तथा अकेली है। इसके अतिरिक्त सभी संकल्प-विकल्प मुझसे बाहरी भाव हैं तथा ये सब संयोग लक्षण वाले हैं। ज्ञान-दर्शन आत्मा के असाधारण गुण हैं जो त्रिकाल ज्ञान, दर्शन रूप ही रहते हैं। कहा भी है
आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय।।
या कबहूँ या जीव को, साथी सगा न कोय ॥ जब कोई तुम्हारा अपना नहीं है, तो घर-परिवार और शरीरादि का ममत्व करना इष्ट नहीं है। क्योंकि जो कर्मों के आधीन है, वह विनश्वर है और नाशवान होने से शुद्धात्म द्रव्य से भिन्न है। तुम त्रैकालिक ध्रुव तथा नित्य हो।
यह दोहा ‘परमात्मप्रकाश' (2, 123) में द्वितीय अधिकार में मिलता है।
जं दुक्खु वि तं सुक्खु किउ जं सुहु तं पि य दुक्खु ।
पई जिय मोहहिं वसि गयउ तेण ण पायउ मोक्खु ॥11॥ .. शब्दार्थ-जं-जो; दुक्खु-दुःख; वि-भी; तं-वह; सुक्खु-सुख; किउ-किया; जं सुह-जो सुख तं पि-वह भी; दुक्खु-दुःख, पइं-तूने (तेरे द्वारा); जिय-हे जीव!; मोहहिं-मोह के वसि-वश में; गयउ-गया, होने पर; तेण-उससे; ण पायउ-प्राप्त नहीं किया, नहीं पाया; मोक्खु-मोक्ष। ____ अर्थ-हे जीव! मोह के वश होकर तुमने दुःख को सुख माना और सुख को दुःख मान लिया; इसलिए मोक्ष प्राप्त नहीं किया।
- यथार्थ में दुःख-सुख मिथ्याकल्पना में हैं। ऐसा तो कभी नहीं होता कि कोई वस्तु दुःख देने वाली हो या सुख देने वाली हो। अलग-अलग परिस्थितियों में जो वस्तु पहले सुखदायक जान पड़ती थी, वही आज दुःखदायक महसूस होने लगती है। यदि वास्तव में वह सुखदायक है, तो सदा काल सभी के लिए सुखदायक होनी चाहिए; परन्तु ऐसा नहीं होता है। समय, व्यक्ति और परिस्थिति बदलते ही जो वस्तु पहले सुखकारक समझ में आती थी, वह बाद में दुःख देने वाली जान पड़ती है।
1.अ, क, द सुह; ब, स सुह; 2. अ पय; क, द, ब, स पइं; 3. अ, क, स गयइ; द, ब गयउ; 4. ज, द, ब, स पायउ; क पावइ; 5. अ, ब, स मोक्खु, क, द मुक्खु।
पाहुडदोहा : 37