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उसका जन्म-मरण नियत है और जन्म-मरण के कारण आवागमन है। आवागमन में एक गति से दूसरी गति में जाना स्वाभाविक है। इस प्रकार अनादिकाल से संसारी जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कर रहा है। लेकिन यह राग-द्वेष का चक्र तब तक चलता है, जब तक अज्ञान होने से यह जीव रागादि और विभाव भावों को करता है; यही मोह है।
विभिन्न गतियों में घूमना तब तक बन्द नहीं हो सकता, जब तक यह अपने घर में चुपचाप नहीं बैठता। जिसे बाहर चक्कर लगाने की आदत हो गई है, वह चुपचाप नहीं बैठ सकता। यही नहीं, दुःखों को सहन करता हुआ भी यह घूमता-फिरता है। घर-पुत्र पत्नी आदि से मोहित होने के कारण अज्ञानतावश यह भ्रमण कर रहा है। इसका मूल कारण यही है कि इसे अपने घर का पता नहीं है। अतः दुःख-कष्टों को सहन करता हुआ कभी भी उनसे विराम नहीं लेता। कहा भी है कि भेद-विज्ञान से रहित यह मूढ़ प्राणी शुभ-अशुभ कर्मों का बन्ध करता है। जगत् के धन्धे में पड़े हुए सभी अज्ञानी जनों की यही दशा है।
यह दोहा ‘परमात्मप्रकाश' में द्वितीय अधिकार (2, 122) में मिलता है।
अण्णु' म जाणहि अप्पणउ घरु-परियणु जो इटठु। कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिं सिठ्ठ' ॥10॥
शब्दार्थ-अण्णु-अन्य, भिन्न; म-मत; जाणहि-जानो; अप्पणउअपना; घरु-परियणु-घर के परिजन; जो इटठु-जो इष्ट (सम्बन्धी) हैं; कम्मायत्तउ-कर्माधीन; कारिमउ-रचना, निर्माण; आगमि-आगम, मूल सिद्धान्त ग्रन्थ में; जोइहि-योगियों के द्वारा; सिठ्ठ-शिक्षा दी गई।
अर्थ-हे जीव! जिन घर-परिजनों को तुम अपना इष्ट समझ रहे हो, वे तुमसे अन्य (भिन्न) हैं, उनको अपना मत जानो। क्योंकि कर्म के वश से इनकी रचना हुई है। योगियों ने इसे (कर्म-रचना को) आगम की शिक्षा कहा है।
भावार्थ-दृश्यमान भौतिक जगत् में जो कुछ भी संयोग में है, वह सब आत्मा से अन्य, भिन्न पर-पदार्थ हैं। उन सभी वस्तुओं से प्राणियों का गहरा सम्बन्ध है, जिनके वातावरण में उनके साथ इसे रात-दिन रहना पड़ता है। लेकिन इसके चाहे जैसे रिश्ते हों, संयोग-सम्बन्ध हों; परन्तु सदा बने रहने वाले स्थायी सम्बन्ध नहीं हैं। जो-जो आज संयोग में हैं, नियम से उनका वियोग होना निश्चित है। कर्म का सिद्धान्त हमें यह बतलाता है कि आत्मा का और कर्म का अनादिसिद्ध सम्बन्ध है;
1. अ अप्पु; क अपुः द, व अण्णुः स अप्पा; 2. अ, क, ब, स जो; द तणु; 3. अ, ब, स कम्माइत्तउ; क, द कम्मायत्तउ; 4. अ, द, ब, स सिट्ट; क सिद्ध।
36 : पाहुडदोहा