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________________ ही परम सुख को प्राप्त कर लेता है । साधना या आराधना निर्विकल्प दशा में ही होती है। जब तक संकल्प - विकल्प मन को घेरे हुए रहते हैं, तब तक निर्विकल्पता कहाँ है? निर्विकल्प हुए बिना सुख-शान्ति की कल्पना करना दुराशा मात्र है ! योगीन्दुदेव का कथन है जोइय मिल्लहि चिंत जइ तो तुट्टइ संसारु । चिंतासत्तउ जिणवरु वि लहइ ण हंसाचारु ॥ परमात्मप्रकाश, 2, 170 अर्थात्-हे योगी, चिन्ता-जाल को छोड़ोगे, तभी संसार का भ्रमण छूट सकता है। क्योंकि चिन्ता में लगे हुए बालक अवस्था के तीर्थंकर भी परमात्मा के आचरण रूप शुद्ध भाव को उपलब्ध नहीं होते। जब योगी बनकर निर्विकल्प समाधि रूप शुद्ध भाव को उपलब्ध होते हैं, तभी राग-द्वेष, मोह रूप संसार टूटता है। राग-द्वेष में चलने का नाम संसार है। जब तक राग-द्वेष के साथ एकता - बुद्धि है, तब तक आकुलता - व्याकुलता, परेशानी है । जोणिहिं लक्खहिं परिभमइ अप्पा दुक्खु सहंतु । पुतकलत्तह' मोहियउ जाव ण बोहि लहंतु ॥१॥ शब्दार्थ- जोणिहिं-योनियों (में); लक्खहिं-लाखों (में); परिभमइ-भ्रमण करता है; अप्पा-आत्मा (जीव ); दुक्खु - दुःख; सहंतु - सहता हुआ; पुत्तकलत्तहं - पुत्र, पत्नी (में); मोहियउ - मोहित हुआ; जाव - जब तक; -नहीं; बोहि - बोधि ( आत्मज्ञान); लहंतु - प्राप्त करता है 1 अर्थ- जब तक यह आत्मा बोधि को प्राप्त नहीं करता, तब तक पुत्र - स्त्री आदि में मोहित होकर दुःख सहता हुआ लाखों योनियों में परिभ्रमण करता है । भावार्थ - चारों गतियों में घूमने का एक मात्र कारण भ्रम पूर्ण अज्ञान है । प्राणियों को भ्रम यह है कि हम दूसरों की सहायता लिए बिना सुखी नहीं हो सकते। बाहरी साधन-सम्पन्नता से ही हमें सुख मिल सकता है - यह एक झूठी ( मिथ्या) आशा है। इस आशा तृष्णा का जनक अज्ञान ही है । प्राणी लोभ इसलिए करता है कि उसके मन में निरन्तर यह आशा बनी रहती है कि अमुक के प्राप्त होने से मैं सुखी हो जाऊँगा। जब मनचाहे की प्राप्ति नहीं होती, तो रोष, क्रोध करता है। इस तरह से राग और द्वेष का चक्र घूमता रहता है। जब तक यह चक्र चलता रहेगा, तब तक संसार बना रहेगा। संसार में जो जन्मा है, उसका मरण सुनिश्चित है; जिसका संयोग हुआ है, उसका वियोग अनिवार्य है । जो संसार के चक्कर में है, 1. अ, स कलत्तह; क, ब, कलत्तह; द पुत्तकलत्तई । पाहुडदोहा : 35
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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