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अपनी सत्ता ज्ञान-आनन्द की है। इसलिए आत्मा का भान, ज्ञान होने पर उसका अनुभव होने लगता है।
यथार्थ में साक्षात् मोक्ष का कारण निज शुद्धात्मा है। उसके अवलम्बन से, आश्रय से सच्चे सुख का मार्ग प्रशस्त होता है। किन्तु संसारी प्राणी धन्धे में पड़ा हुआ होने से क्षणभर के लिए भी वीतराग, परमानन्द स्वरूप निज शुद्धात्मा का चिन्तन नहीं करता।
यह दोहा ‘परमात्मप्रकाश' (2, 121) में द्वितीय अधिकार में मिलता है। इसका सारांश इस प्रकार है कि अनन्त ज्ञानादिस्वरूप मोक्ष का कारण जो वीतराग परमानन्द रूप निज. शुद्धात्मा है, उसका यह मूढ़ प्राणी एक क्षण के लिए भी चिन्तन नहीं
करता।
आयइं अडबड वडवडइ पर रंजिज्जइ लोउ। मणसुद्धइ' णिच्चल ठियई पाविज्जइ परलोउ ॥8॥ ..
शब्दार्थ-आयइं-ये; अडबड-अड़बड़, ऊटपटांग; वडवडइ-बड़बड़ाता है; पर-अन्य; रंजिज्जइ-प्रसन्न किया जाता है; लोउ-लोक; मण सुद्धइ-मनः शुद्धि; णिच्चल ठियइ-निश्चल स्थित होता है, स्थिर होता है; पाविज्जइ-प्राप्त किया जाता है; परलोउ-परलोक। ,
अर्थ-ये जो अड़बड़ (ऊटपटाँग) बड़बड़ाते हैं, उनसे लोक में अन्य लोगों का मनोरंजन होता है। किन्तु मन के शुद्ध तथा निश्चल हो जाने पर परलोक में परम सुख प्राप्त किया जा सकता है।
भावार्थ-लोक में चारों ओर कोलाहल व्याप्त है। भीतर-बाहर सब ओर कोलाहल, शोर है। प्राणी को घर-द्वार, बाल-बच्चे, अपने-पराये की चिन्ताएँ घेरे हुए हैं। उनको सहलाने के लिए या मन को बहलाने के लिए भावावेश में यह तरह-तरह की बातें करता रहता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह आदि के भावों से प्रत्येक क्षण मन अशान्त तथा अशुद्ध रहता है। जिस प्रकार धूल से भरा हुआ जल जब तक हवा चलती रहती है, तब तक मैला रहता है, लेकिन हवा के रुकते ही धूल पेंदे में बैठ जाती है और जल स्थिर, निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार विचारों (विकल्पों) की आँधी जब तक चलती है, तब तक मन मलिन एवं अस्थिर रहता है। धर्मध्यान की साधना व आराधना से मन के शुद्ध और निश्चल हो जाने पर प्राणी साधना के बल पर इस जन्म में कदाचित् नहीं, तो अगले जन्म में निश्चय
1. अ मणसुद्धइ क, द, ब, स मणसुद्धइं; 2. अ णिच्चलठियइ; क णिच्चलठियइं; द ठियह; व णिच्चलठियं।
अ : पाहुडदोहा