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भी जड़ या चेतन वस्तु की सत्ता का प्रवेश सम्भव नहीं है । परमार्थ से कोई पदार्थ किसी अन्य वस्तु का कुछ भी नहीं कर सकता है । ( योगसार प्राभृत, 2,18)
वि भुंजंता विसयसुहु हियडइ भाउ धरंति । सालिसित्थु जिम वप्पडउ णर णरयहं णिवडंति ॥6॥
शब्दार्थ-णवि-नहीं; भुंजंता - भोगते हुए; विसयसुहु - विषयसुख, हियडइ–हृदय (में); भाउ - भाव; धरंति-धरते हैं; सालिसित्थु - शालिसिक्थ (तन्दुल मच्छ); जिम - जिस तरह; वप्पडउ - बेचारा; णर - (नर) मनुष्य; णरयहं - नरक (में); णिवडंति - गिरते हैं (उत्पन्न होते हैं) ।
अर्थ - विषय - सुख का भोग न करते हुए भी जो प्राणी हृदय में उसे भोगने का भाव धारण करते हैं, वे तन्दुल मच्छ ( शालिसिक्थ) की तरह नरक में उत्पन्न होते ( पड़ते हैं।
भावार्थ - जैनधर्म में भाव की प्रधानता है । कोई प्राणी भोग नहीं भोगता है, लेकिन परिस्थितिवश अपने को असहाय समझकर बार- बार भोगने की इच्छा रखता है। इस सम्बन्ध में तन्दुलमच्छ की कथा प्रसिद्ध है। कथा का सार यह है कि किसी राजा ने माँस खाने का त्याग किया । किन्तु किसी माँसप्रिय व्यक्ति की कुसंगति से माँस खाने का भाव हो गया। उसने गुप्त रूप से अपने रसोइये से प्रतिदिन माँस पकाने के लिए कहा। रसोइया माँस पकाने लगा । लेकिन किसी-न-किसी अड़चन के कारण राजा माँस नहीं खा पाया। इसी बीच एक दिन रसोइया सर्प के डसने से मरकर स्वयम्भूरमण समुद्र में महामत्स्य हुआ। राजा मरकर उस महामत्स्य के कान में तन्दुल (चावल) के आकार का कीड़ा हुआ। वह वहाँ पर उस महामत्स्य के मुख में अनेक जल-जन्तुओं को भीतर जाते हुए और बाहर आते हुए देखकर मन में कहता है – “अहो ! यह मच्छ बड़ा अभागा और मूर्ख है जो अपने मुँह में आये हुए जन्तुओं को भी छोड़ देता है। यदि मेरा इतना बड़ा मुँह होता, तो सारे समुद्र को जन्तुरहित कर देता ।” इस प्रकार माँस खाने की शक्ति नहीं होने पर भी वह तन्दुलमच्छ मरकर सातवें नरक में गया। क्योंकि उसके भाव खोटे थे । आचार्य कुन्दकुन्द कृत 'भावपाहुड' (गा. 88 ) में यह उल्लेख इस प्रकार है
मच्छो वि सालिसित्यो असुद्धभावो गओ महाणरयं । इय गाउं अप्पाणं भावह जिणभावणं णिच्चं ॥
अर्थात् - अशुद्ध भाव के कारण सालिसित्थ मच्छ महानरक (सातवें नरक) में
1. अ, द, ब, स वप्पुडउ; क वापुडौ । हस्तलिखित प्रतियों में दोहा - संख्या भिन्न-भिन्न है ।
32 : पाहु