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________________ विषय-सुख तो आत्मा, परमात्मा को उपलब्ध कराने में बाधक ही हैं। इसलिए वे य, त्याज्य हैं। जब तक इन्द्रियों के विषयों से यह जीव हटेगा नहीं, तब तक इसे सच्चा सुख उपलब्ध नहीं होगा । आभुंजंतउ' विसयसुहु' जे गवि हियइ धरंति । ते सासयहु लहु लहहिं जिणवर एम भांति ॥5॥ शब्दार्थ - आभुंजंत-भोग करते हुए; विसयसुहु-विषय-सुख; जे - जो (बहुवचन); णवि - नहीं ही ; हियइ - हृदय (में); धरंति-धरते हैं, धारण करते हैं; ते - वे; सासयसुहु - शाश्वत सुख; लहु - शीघ्र; लहहिं - प्राप्त करते हैं; जिणवर - जिनवर; एम- इस प्रकार, ऐसा; भांति - कहते हैं । अर्थ - विषय - सुख का भोग करते हुए भी जो उसे हृदय में धारण नहीं करते अर्थात् आसक्त नहीं होते, वे अल्पकाल में शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं; ऐसा जिनवर कहते हैं । + भावार्थ-जिनवर भगवान् कहते हैं कि देवगति में देवों के भी वास्तविक सुख नहीं है । वे शरीर की वेदना से पीड़ित होकर इन्द्रियों के रम्य विषयों में रमण करते हैं। (प्रवचनसार, गा. 76 ) जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, जिसका सम्बन्ध अन्य वस्तु या इन्द्रियों के विषय से है, जो नष्ट हो जाता है, इन्द्रियों के अधीन है, जिसके बने रहने में बाधा उत्पन्न हो जाती है, वह यथार्थ में दुःख ही है। क्योंकि सच्चा सुख अतीन्द्रिय, निराकुल, निर्विकल्प, सतत बना रहने वाला सदानन्द है जो मन और इन्द्रियों की पहुँच से बाहर है। वास्तविक सुख परम सन्तोष को देने वाला और विषय- तृष्णा को नष्ट करने वाला सहज स्व-संवेद्यमान है । निज शुद्धात्मा की अनुभूति से ही वह उपलब्ध होता है । यदि कोई यह कहता है कि इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान होता है, तो फिर इन्द्रियाँ जड़ हैं; जबकि ज्ञान चेतन की पर्याय है । आत्मा के द्वारा ज्ञान होता है । आत्मा स्वयं ज्ञान रूप परिणमन करता है। ज्ञान होना आत्मा की क्रिया है । अतः धर्म को और धर्म जिसमें रहता है उस धर्मी को जानने वाला ज्ञान प्रमाणज्ञान है। 1 उस ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं, जो जाननहारा को स्वयं सहज रूप से स्वतः जानता है। आत्मा पर पदार्थ से वस्तुतः भिन्न है । इसलिए वह न तो उसका भोग कर सकता है और न उसे ग्रहण कर सकता है । क्योंकि चेतन की सत्ता में किसी 1. अ, स आभुंजंतउं; क, द, ब आभुंजंता; 2. अ, क, ब, स विसयसुहुः द विसयसुह; 3. क, द, स जिणवरु; अ, ब जिणवर । दोहा : 31
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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