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________________ (हंस) को यही सम्बोधन किया गया है कि तू इस निर्विकल्प, वीतराम आत्मस्वभाव में लीन होकर नित्य इसी में सन्तुष्ट रह। इसी से तुझे तृप्ति तथा उत्तम सुख की प्राप्ति होगी। जं सुहु विसयपरंमुहउ' णिय अप्पा झायंतु। तं सुहु इंदु' वि णवि लहइ देविहिं कोडि रमंतु ॥4॥ __शब्दार्थ-जं-जो; सुहु-सुख; विसयपरंमुहउ-विषयों (से) पराड्.मुख; णिय-निज; अप्पा (शुद्धात्मा)-आत्मा; झायंतु-ध्यावे; तं-वह, सुह-सुख; इंदु-इन्द्र वि-भी; णवि-नहीं; लहइ-प्राप्त करता है; देविहिं-देवियों (के साथ); कोडि-करोड़; रमंतु-रमण करे। अर्थ-इन्द्रियों के विषयों से पराङ्मुख, निवृत्त होकर अपने आत्मा के ध्यान से जो सुख मिलता है, वह सुख करोड़ों देवियों के साथ रमण करने वाले इन्द्र को भी नहीं मिलता है। भावार्थ-स्पर्श, रसना, घ्राण, नेत्र और कर्ण ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। इन्द्रियों के अपने-अपने विषय हैं। अनादिकाल से प्रत्येक जीव लोक के सभी विषयों के ग्रहण करने की इच्छा करता रहता है। इच्छाएँ अनन्त हैं और विषय साधन सीमित हैं। इसलिए इच्छाएँ कभी पूर्ण नहीं होती हैं। इच्छा की पूर्ति न होने पर आकुलता उत्पन्न होती है। आकुलता से प्राणी दुःखी होता है। कभी-कभी यह दुःख ऐसा होता है कि विषय को ग्रहण करने के लिए यह मरण को भी नहीं गिनता है। ऊपर का दोहा 'परमात्मप्रकाश' (अ. 1, दो. 117) में कुछ परिवर्तन के साथ मिलता है। वास्तव में इन्द्रिय सख दःख रूप ही हैं। जिस सुख में पराधीनता हो, वह सुख नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द पुद्गल (जड़) हैं जो इन्द्रियों के विषय हैं। इन्द्रियाँ उनको एक साथ नहीं जानती हैं। फिर, इन्द्रियाँ आत्मा के स्वभाव रूप नहीं हैं। इसलिए वे परद्रव्य कहीं गई हैं। उनके माध्यम से ज्ञात पदार्थ आत्मा के प्रत्यक्ष कैसे हो सकते हैं? वास्तव में इन्द्रियों का व्यापार दुःख ही है। सुख या आनन्द स्वभावसिद्ध है। अतः स्पर्शनादि इन्द्रियों के द्वारा आश्रय लिए जाने पर भी इष्ट विषयों को उपलब्ध कर आत्मा स्वयं सुख रूप है; शरीर सुख रूप नहीं है। यदि प्राणी की दृष्टि ही अन्धकारनाशक हो, तो दीपक से कोई प्रयोजन नहीं रहता। इसी प्रकार जहाँ आत्मा स्वयं सुख रूप परिणमन करता है वहाँ विषय क्या कर सकते हैं? (प्रवचनसार, गा. 58-69) 1. अ, ब विस्थपरमुहउं; क, द विसयपरंमुहउ; स विसयपरंमुहउं; 2 अ, क, द, स इंदु; व सक्कु; 3. अ, द, ब णवि; क, द "उ; 4. अ, क, द देविहिं; ब, स देविउ। 30 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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