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विभूषित होते हैं। ऐसे गुरु की कृपा से आत्मदेव की पहचान हो जाने पर अविचल आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है।
बलिहारी गुरु अप्पणई दिउ हांडी' सय वार। माणस हुंतउं देउ किउ करंत ण लग्गइ वार ॥2॥
शब्दार्थ-बलिहारी; गुरु (कर्मोदय)-स्वयं आत्मा, अप्पणइं-अपने को; दिउ-दी, प्रदान की; हांडी-शरीर (नामकर्म से मिला); सयवार-सैकड़ों बार; माणस-मनुष्य हुंतउ-से (पंचमी विभक्ति), देउ (देव पर्याय)-देव गति; किउ-किया; करत-करते हुए, ण लग्गइ-नहीं लगा; वार-समय।
अर्थ-उन गुरु की बलिहारी है जिन ने एक बार नहीं सैकड़ों बार हमें मनुष्य से देव बनाया है। देव पर्याय का जन्म देने में उन्होंने देर नहीं लगाई।
भावार्थ-जैनधर्म के अनुसार किसी भी प्राणी को मनुष्य या देव बनानायह देव, शास्त्र या गुरु का कार्य नहीं है। प्रत्येक पुरुष अपने पुरुषार्थ से ही शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार जन्ममरण को प्राप्त होता है। इसी प्रकार भगवान् या उनकी मूर्ति किसी भी प्राणी को न तो कुछ देती है और न कुछ करती है; लेकिन उनके अवलम्बन से व्यक्ति के भावों में शुभ भाव रूप परिणमन होने से भक्ति के वश कवि ऐसा गुणानुवाद करते हैं कि आपकी शरण में आने पर सब संकट दूर हो जाते हैं। इसी प्रकार यहाँ पर औपचारिकता से कर्म के फल का आरोप गुरु पर वर्णित कर यह कहा गया है कि आप मनुष्य से देव बना देते हैं। आचार्य कुमुदचन्द्र 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में कहते हैंध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन, देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति।
श्लोक 15 अर्थात्-हे जिनेश! आपके ध्यान में लवलीन जीव क्षण भर में शरीर की ओर से हटकर परमात्म-दशा को प्राप्त कर लेते हैं।
आचार्य अमितगति के अनुसार कर्म के अतिरिक्त किसी भी प्राणी को कोई कुछ भी नहीं देता है। उनके शब्दों मेंनिजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किंचन॥
-भावनाद्वात्रिंशिका, 30 अर्थात्-प्रत्येक प्राणी को पूर्व में उपार्जित कर्म के सिवाय अन्य कोई भी कुछ
मुद्रित प्रति में यह दोहा नहीं है। प्राचीन प्रति तथा गुटके में उपलब्ध होता है। 1. अ आप्पणइं; 2. अ हाडी। शुद्ध पाठ हैं-अप्पणई, हांडी।
28 : पाहुडदोहा