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भासमान हो जाता है। उसके विषय में फिर क्या विवाद के लिए रह जाता है? अतः परमार्थ के सम्बन्ध में वाद-विवाद करने से कुछ समझ में नहीं आता है, वह तो शुद्धात्मानुभूति का विषय है। अतः आत्मतत्त्व स्वानुभवगम्य है, वाद-विवाद से या पूछ-ताछ से वह प्राप्त नहीं होता।
कालहि पवणहि रविससिहि चहु एक्कट्ठइ वासु। हउं* तुहिं पुच्छउँ जोइया पहिले कासु विणासु ॥219॥
शब्दार्थ-कालहि-काल, समय; पवणहि-पवन; रविससिहि-सूर्य-चन्द्र का; चहु-चारों (का); एक्कट्ठइ-इक्ट्ठा, एकत्र; वासु-निवास (है); हउं-मैं; तुहिं-तुमसे; पुच्छउं-पूछता हूँ; जोइया-हे योगी!; (इनमें से) पहिले-पहले; कासु-किसका; विणासु-विनाश (है)।
अर्थ-काल, पवन, सूर्य और चन्द्र इन चारों का एकत्र वास है। हे जोगी! मैं तुमसे पूछता हूँ कि इनमें से पहले किसका विनाश होगा? ।
भावार्थ-लोक में कोई भी वस्तु विनाशीक नहीं है। इसलिए यह प्रश्न ही नहीं उठता है कि विभिन्न पदार्थों में से प्रथम विनाश किसका होगा? द्रव्य स्वयं ही अपनी अनन्त शक्ति रूप सम्पदा से परिपूर्ण है, इसलिए स्वयं छहकारक रूप होकर अपना कार्य करने के लिए समर्थ है, बाहर की सामग्री उसकी कोई सहायता नहीं कर सकती। कोई यह समझे कि जिस प्रकार पके हुए आम के फल में रस, जाली, गुठली, छिलका ऐसे चार अंश हैं, वैसे ही पदार्थ में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ये चार अंश होंगे; ऐसा नहीं है। जैसे आम का फल है और उसके स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण उससे अभिन्न हैं, वैसे ही जीव पदार्थ के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव उससे अभिन्न हैं और आत्मसत्ता स्वचतुष्टय से अखण्ड है। (नाटक समयसार, साध्यसाधकद्वार, 44)
गुण-पर्यायों के समूह को वस्तु कहते हैं। इसी का नाम द्रव्य है। पदार्थ आकाश के जिन प्रदेशों को रोककर रहता है अथवा जिन प्रदेशों में पदार्थ रहता है, उस सत्ताभूमि को क्षेत्र कहते हैं। पदार्थ के परिणमन अर्थात् पर्याय से पर्यायान्तर रूप होने को काल कहते हैं। पदार्थ के निज स्वभाव को भाव कहते हैं। यही द्रव्य का चतुष्टय कहलाता है। प्रत्येक द्रव्य को द्रव्यदृष्टि से देखो तो सदा काल है, स्वाधीन है, एक है और अविनाशी तथा नित्य है। किन्तु पर्याय दृष्टि से पराधीन, क्षणभंगुर,
1. अ कालहि; क, द, ब, स कालहिं; 2. अ पवणहि; क, द, ब, स पवणहिं; 3. अ रविससिहि; क, द, ब, स रविससिहिं; 4. अ हउ; क, द, ब, स हउं; 5. ज पुच्छउ; क, द, स पुच्छउं; ब पुच्छिउ।
258 : पाहुडदोहा