SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वादविवादा' जे करहिं जाहिं ण फिट्टिय भंति । जे रत्ता गउपावियई ते गुप्पंत' भमंति' ॥218॥ शब्दार्थ - वादविवादा- वादविवाद ( को ); जे - जो; करहिं - करने से; जाहिं-जिनकी; ण फिट्टिय नहीं मिटी है; भंति - भ्रान्ति; जे - जो; रत्ता - अनुरक्त; गउपावियई - प्रशंसा - बढ़ाई से; ते - वे; गुप्त - भ्रान्त होते हुए; भमंति - घूमते-फिरते हैं । अर्थ- वाद-विवाद करने पर भी जिनकी भ्रान्ति नहीं मिटी और जो अपनी प्रशंसा-बड़ाई करने में लगे हुए हैं, वे भ्रान्त हुए भ्रमण ही करते रहते हैं । भावार्थ- वाद-विवाद आदि को छोड़कर अध्यात्म का अर्थात् निज शुद्धात्मा का चिंतवन करना चाहिए । अन्धकार ( मोह) का नाश हुए बिना ज्ञान- ज्ञेय में प्रवर्तता नहीं है। वाद-प्रवादादि सब अन्धकार है जो शुद्धात्मा के चिंतवन में बाधक है। ( योगसारप्राभृत, मोक्ष अ., श्लोक 38 ) इस जीव को अनादि काल से भ्रम यह है कि हे प्रभु! आप पावन हैं, मैं अपावन हूँ। मुनिश्री योगीन्द्रदेव कहते हैं - शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है । जैसे स्फटिकमणि स्वभाव से निर्मल है, उसी तरह आत्मा ज्ञान, दर्शन रूप निर्मल है। ऐसे आत्मस्वभाव को हे जीव ! शरीर की मलिनता देखकर भ्रम से आत्मा को मलिन मत मान। यह शरीर शुद्ध, बुद्ध, परमात्म पदार्थ से भिन्न है, शरीर मलिन है, आत्मा निर्मल है। जैसे वस्त्र और शरीर मिले हुए भासते हैं, किन्तु शरीर से वस्त्र भिन्न है, उसी प्रकार आत्मा और शरीर मिले हुए दिखते हैं, किन्तु दोनों भिन्न-भिन्न हैं 1 क्योंकि शरीर की रक्तता से, जीर्णता से और विनाश से आत्मा की रक्तता, जीर्णता और विनाश नहीं होता। (परमात्मप्रकाश, अ. 2, 179 - 180 ) अतः भ्रम यही है कि राग-द्वेष, मोह रूप मैं हूँ। मैं शुद्ध कहाँ हूँ? मैं दीन, हीन, निर्बल, ज्ञानहीन हूँ। कहा यह गया है—“वाद-विवाद करे सो अन्धा” अर्थात् ज्ञान- मद में फूले हुए पण्डित ही शास्त्रार्थ, वाद-विवाद करते हैं । वास्तव में आत्मा का स्वरूप वाद-विवाद से परे अनुभव करने योग्य है । आत्मा वस्तु जैसी है, वैसी है - उसमें वाद-विवाद करने से क्या लाभ? अनुभव करके देख ले न? कितना वाद-विवाद किया जाए, जिससे मिश्री का स्वरूप समझ में आ जाए? मिश्री का स्वाद लेने पर जैसे उसकी मिठास समझ में आ जाती है, वैसे ही स्वानुभूति से स्व-संवेद्य प्रत्यक्षगम्य निज शुद्धात्मा 1. अ वादाविवादा; क, द, स वादविवादा; ब वादविवादह; 2. अ, ब करहि; क, द, स करहिं; 3. अ जाह; क, द, ब, स जाहिं; 4. अ ण फिट्टइ; क, द, स ण फिट्टिय; ब न फिट्टिय; 5. अ, क गउ पावियउ; द, स गउपावियई; ब गउपावियइ; 6. अ, क, द स गुप्पंत; ब गुप्पंति; 7. अ, क, स भमंति; द, ब भवंति । पाहुडदोहा : 257
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy