SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 258
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधिज्जइ-बाँध लिया जाता है; णियकप्पडइं-अपने वस्त्र में; जोइज्जइ-देखा जाता है; एक्कंत-एकान्त (में)। ____अर्थ-हे जोगी! यदि पृथ्वी पर घूमते हुए माणिक्य प्राप्त हो गया है, तो उसको अपने वस्त्र में लपेट कर (बाँधकर) एकान्त में अवलोकन करना चाहिए। भावार्थ-जैसे किसी मनुष्य को हीरा या लाल (माणिक्य) मिल जाए, तो वह सबको न बताकर एकान्त में मौन होकर चुपचाप निहारेगा, बार-बार देखेगा। उसके अवलोकन मात्र से उसे आनन्द की प्राप्ति होगी। इसी प्रकार निज शुद्धात्मा के अवलोकन या अनुभव मात्र से परमानन्द की उपलब्धि होती है। 'श्री नेमीश्वर . . वचनामृतशतक' (श्लोक सं. 17) में कहा गया है कि-जैसे रास्ते चलते किसी गरीब को, पथिक या राहगीर को सोने से भरा हुआ घड़ा मिल जाए, तो वह उसे गुप्त रखता है, वैसे हे भव्य! तू तेरी निजात्म-भावना को स्वयं में गुप्त रख, गुप्तपने उसका अनुभव कर। आचार्य कहते हैं-सभी रत्नों में महान् सम्यक्त्व रत्न है। अणिमा आदि ऋद्धियों में यह सबसे बड़ी ऋद्धि है। अतः बुद्धिमानों को सदा प्रथम सम्यग्दर्शन का उपदेश करना चाहिए। यह सम्यग्दर्शन आत्मा का शुद्ध स्वभाव है। दर्शन, ज्ञानमयी, अविनाशी, निश्चल आत्मा का गुण सम्यग्दर्शन है।(तारणस्वामी : श्रावकाचारसार, 175) ____ आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में “न सम्यकक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि" अर्थात् सम्यग्दर्शन के समान तीनों कालों और तीनों लोकों में अन्य कोई कल्याण नहीं है। इसके प्रभाव से ही देवों का वैभव प्राप्त होता है। आठ प्रकार की ऋद्धियों के धारक, इन्द्र के समान विशिष्ट देव सम्यग्दर्शन होने पर ही होते हैं। कहा भी है अष्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः। अमराप्सरसां परिषदि चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ताः स्वर्गे ॥ रत्नकरण्ड., श्लोक 37 अर्थात्-जिनेन्द्र के भक्त सम्यग्दृष्टि स्वर्गलोक में जाकर अणिमा, महिमा, गरिमा आदि आठ ऋद्धियों के धारक महर्धिक देव होते हैं; साधारण देव नहीं होते हैं। उनका वैभव इन्द्र के समान होता है। वे देवों में तथा अप्सराओं की सभा में चिरकाल तक रमण करते हैं। 256 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy