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________________ ही हैं। उनको परमेष्ठी कहा जाता है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और धर्म ही आत्मा के हितकारी हैं। आचार्य शुभचन्द्र का कथन है पातयन्ति भवावर्ते ये त्वां ते नैव बान्धवाः। बन्धुतां ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिनः ॥ -ज्ञानार्णव, अनित्यानुप्रेक्षा, श्लोक 22 अर्थात्-देखो, आत्मन् ! जो तुझे संसार के चक्र में डालते हैं, वे तेरे हितैषी नहीं हैं, किन्तु साधु-सन्त ही आत्महित का उपदेश देकर तेरे हित हेतु बन्धुता करते जो जिनदेव को नहीं मानता है, उसमें जिनवर की भक्ति नहीं है और जो जिनवर की आराधना नहीं करता है, उससे जैन का क्या सम्बन्ध है? क्योंकि वह जैन समाज का नहीं है। धार्मिक दृष्टि से जो जिनवर का भक्त नहीं है, उससे जुहार-विहार का सम्बन्ध रखना योग्य नहीं है। लौकिक दृष्टि से सम्बन्ध समान आचार-विचार वाले के साथ रखना योग्य कहा जाता है। ज्ञानी अज्ञानी के साथ सम्बन्ध रखकर क्या हित साध सकता है? वास्तव में जो परमात्मा या सिद्धात्मा हैं, वही मैं हूँ। जो मैं हूँ वह सिद्ध परमात्मा है। अतः अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है और न मैं किसी का उपास्य हूँ। आचार्य शुभचन्द्र के शब्दों में यः सिद्धात्मा परः सोऽहं योऽहं स परमेश्वरः। मदन्यो न मयोपास्यो मदन्येन न चाप्यहम् ॥ज्ञानार्णव, 45, 32 अर्थात्-जो उत्तम सिद्धात्मा हैं, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वह परमात्मा हैं। मेरे सिवाय मेरा अन्य कोई उपास्य, आराध्य नहीं है और न मैं किसी का उपास्य हूँ। वास्तव में जो मेरा सम्बन्धी नहीं है, उससे सम्बन्ध रखने में क्या निजी लाभ है? जो मेल का न हो, उससे सम्बन्ध बनाने से अपनी हानि होती है। जइ लद्धउ माणिक्कडउ जोइय पुहवि' भमंत । बंधिज्जइ णियकप्पडई जोइज्जइ एक्कंत ॥217॥ शब्दार्थ-जइ-यदि; लद्धउ-प्राप्त हो गया; माणिक्कउड-माणिक्य (सम्यक्त्व रत्न) जोइय-हे योगी!; पुहवि-पृथ्वी पर; भमंत-घूमते हुए; 1. अ पुहमित; क, द, ब, स पुहवि; 2. अ संता; क, द, स भमंत; व भवंत; 3. अ, ब णियकप्पडइ; क, द, स णियकप्पडइं; 4. अ छोडिज्जइ; क जोइज्जहि; द, ब, स जोइज्जइ; 5. अ एकंत; क इक्कंत; द, ब, स एक्कंत। पाहुडदोहा : 255
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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