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________________ ज्ञान जानता-देखता तो है, लेकिन कर्ता-भोक्ता नहीं है। जानने में करने का क्या काम? स्वयं का जानन ही परमार्थ से स्वयं की वृत्ति या कार्य है। ऐसा कोई समय नहीं है, जब ज्ञान जानता न हो। अतः जानन रूप उपयोग के बने रहने पर वास्तव में उपवास होता है। क्योंकि हम आत्मा के पास या परमात्मा के पास तभी होते हैं, जब न तो भूख-प्यास होती है और न विषय-कषाय; पर की चिन्ता से दूर, सांसारिक धन्धों से हटकर आत्मस्वरूप के चिन्तन में तन्मय होने पर बाहर के सभी व्यापारों से चित्त की निवृत्ति होने पर उपवास होता है। अतएव चारों प्रकार के आहार का त्याग कर देने पर भी विषय-कषाय का त्याग न हो, तो उसे वास्तव में उपवास नहीं कहते। उपवास कहना एक अलग बात है और उपवास का घटित होना बिल्कुल । अलग बात है। कहा भी है कषायविषयाहारो त्यागो यत्र विधीयते। उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ॥ अर्थात्-विषय-कषाय और आहार का जहाँ त्याग होता है, वहीं उपवास होता है; बाकी के सब लंघन (निराहार) मात्र हैं। अच्छउ भोयणु ताह घरि सिद्ध हरेप्पिणु जेत्यु। ताह' समउ जय कारियई ता मेलियई संमत्तु ॥216॥ शब्दार्थ-अच्छउ-बना रहे; भोयणु-भोजन; ताह-उसके; घरि-घर में; सिद्ध-सिद्ध भगवान (को); हरेप्पिणु-हरकर; जेत्थु-जहाँ पर; ताह-उसके समउ-साथ; जय कारियइं-जयकार करने से; ता-तो; मेलियइ-छूट जाता है; संमत्तु-सम्यक्त्व। अर्थ-उस घर का भोजन बना रहे, जहाँ पर सिद्ध का अपहरण या मान्यता न हो अर्थात् उस घर में भोजन नहीं करना चाहिए जो आठों कर्मों से रहित निर्दोष देव को मानता, पूजता न हो। उसके साथ जयकार करने (उसकी जय बोलने) से भी सम्यक्त्व छूट जाता है। भावार्थ-जिस प्राणी का आत्मा और परमात्मा पर विश्वास नहीं, जो आत्मश्रद्धान से रहित, अर्हन्त, सिद्ध को मानता, पूजता नहीं है, वह तो जैन भी नहीं है। जैनी नियम से जिनदेव का प्रतिदिन दर्शन, पूजन करता है। इष्ट तो एक जिनवर 1. अ भोयण; क जोयउ; द, स भौयणु, ब भायण; 2. अ, ब ताह; क, द, स ताहं; 3. अ घरे; क, द, स घरि; ब हरें; 4. अ, क, ब सिद्ध क, स सिद्ध 5. अ हरेविणुः क, द, ब, स हरेप्पिणुः 6. अ जत्थु; क, द, स जेत्थु; ब जित्यु; 7. अ ताह; क, द, ब, स ताहं; 8. अ कारियए; करियई द, स कारियइं; ब कारियइ; 9, अ मिलिय; क, द, स मेलियइ व मइलिय। 254 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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