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करडा 'मन' का, बलद्द (बैल) 'इन्द्रियों' का, णंदणवण (नन्दनवन) 'आत्मा' का, अपनी पहचान स्पष्ट रूप से लिये हुए है। डॉ. उपाध्येजी के अनुसार दाहोपहुिई का, पालि 'वर्तमान जीवन' का, पिउ ‘परमात्मा' का, घर 'शरीर' का और देवल आत्मास्थित शरीर का वाचक है। ये सभी प्रतीक सहज रूप से प्रयुक्त हुए हैं। डॉ. हीरालाल जैन का कथन है कि “पाहुडदोहा” में “जोगियों का आगम, अचित् और चित्, देहदेवली, शिव और शक्ति, संकल्प और विकल्प, सगुण और निर्गुण, अक्षर, बोध और विबोध, वाम-दक्षिण और मध्य, दो पथ, रवि, शशि, पवन और काल आदि ऐसे शब्द हैं, और उन का ऐसे गहन रूप में प्रयोग हुआ है कि उन से हमें योग
और नाविक यक्षों का स्मरण यये बिना नहीं नहीं रहता। यथार्थ में निर्माणधाय की एक दीर्घ परम्परा जैन और बौद्ध सन्त-साधुओं के माध्यम से हिन्दी साहित्य में प्रवाहित हुई है।
प्रतीकों के साथ ही अलंकारों का भी बहुविध प्रयोग प्रस्तुत काव्य में परिलक्षित होता है। रूपक, दृष्टान्त, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का परिचय विशेष रूप से मिलता
है।
भाषा
साधारण रूप में मुनि रामसिंह ने उस अपभ्रंश भाषा का प्रयोग किया है जो 'परमात्मप्रकाश' में उपलब्ध होती है। यह तो निश्चित है कि हेमचन्द्र ने प्राकृतव्याकरण के अन्तर्गत जिस अपभ्रंश भाषा के नियमों का विवेचन किया है वह परवर्ती है। अतः जोइन्दु की भाषा में कहीं-कहीं भिन्नता होना स्वाभाविक है। मुनि रामसिंह के सम्बन्ध में भी यह तथ्य यथार्थ है। भाषा बोल-चाल की होने पर भी अपनी पहचान स्पष्ट रूप से लिये हुए है। डॉ. उपाध्येजी के अनुसार 'दोहापाहुड' में अकारान्त शब्द के षष्ठी के एक वचन में 'हो' और 'हुँ' प्रत्यय आते हैं, किन्तु 'परमात्मप्रकाश' में केवल हँ' ही पाया जाता है तथा तुहारउ, तुहारी, दोहिं मि, देहहमि, कहिँमि आदि रूप ‘परमात्मप्रकाश' में नहीं पाये जाते हैं।" वास्तव में यह भिन्नता स्पष्टतः लक्षित होती है। यह भी एक विशेषता है कि मुनि रामसिंह की • भाषा सशक्त, व्यञ्जनात्मक तथा पूर्णतः सांकेतिक है। यही विशेषता उत्तम काव्य
की कही जाती है। वास्तव में उत्तम काव्य में व्यङ्गय प्रधान होता है। अपने गूढ़ तथा .. आध्यात्मिक विचारों को स्पष्ट रूप से विभिन्न शब्द-संकेतों द्वारा अभिव्यंजित करने
हेतु अभिव्यंजना का उचित आलम्बन लिया गया है। संक्षेप में, मुनि रामसिंह की भाषा काव्यात्मक विशेषताओं से युक्त है।
1. पाहुडदोहा, कारंजा सीरिज, 1933, पृ. 17 से उघृत। 2. डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये : परमात्मप्रकाश, प्रस्तावना, पृ. 125 से उद्धृत
प्रस्तावना : 23