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कर्म रुकते हैं) होता है। बहुत विस्तार से इच्छा करने से क्या लाभ है? किसी से कुछ भी मत पूछ।
भावार्थ-स्वामी कार्तिकेय का कथन है कि इन्द्रियों का उपवास अर्थात् उनको विषयों में नहीं जाने देता है तथा मन को अपने आत्मस्वरूप में जोड़ना उसे मुनीन्द्रों ने उपवास कहा है। इसलिए जितेन्द्रिय पुरुष को आहार करते हुए भी उपवास सहित कहा है। (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. 437)
उपवास करने वाले व्यक्ति को उत्कण्ठित होकर धर्मामृत का पान करना चाहिए और आलस्य रहित होकर ज्ञान-ध्यान में लीन रहना चाहिए। भोजन शरीर की रक्षा के लिए है, शरीर ज्ञान के सम्पादन के लिए है। ज्ञान कर्म का नाश करने के लिए है। कर्मों का नाश हुए बिना परमपद की प्राप्ति नहीं होती।
उपवास तप है। तप शोधक रूप से उपकार करता है। तप के बिना आत्मा की शुद्धि नहीं होती। आचार्य गुणधर के शब्दों में
णाणं पयासयं तवो सोहओ संजयो य गुत्तियरो। तिण्हं पि समाजोए मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो ॥कसायपाहुड, गा. 12
अर्थात-ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है और संयम गुप्ति करने वाला है। अतः ज्ञान, तप, संयम इन तीनों के मिलने पर मोक्ष होता है, ऐसा जिनशासन में कहा है। .
यह भी जिनागम में प्रसिद्ध है-'इच्छानिरोधस्तपः' (धवला, 5, 4, 26) अर्थात् इच्छा का निरोध होना ही तप है। इच्छा एक दोष है, जो दोष है वह जीव का स्वभाव नहीं है। तप से दोष का शोधन हो जाता है। इसलिए तप को शोधक कहा है। शुद्धनय के विषयभूत आत्मा की जो अनुभूति है, वही ज्ञान की अनुभूति है। जब तक संकल्प-विकल्प होते रहते हैं, तब तक चंचलता और अस्थिरता है। उस दशा में आत्मानुभूति नहीं होती। किन्तु मन के उजाड़ होने पर इन्द्रियों का व्यापार रोककर क्षणभर के लिए अन्तर्मुख होकर निज शुद्धात्मा स्वरूप भासित होने पर आत्मा का शुद्ध संवेदनात्मक (ज्ञानात्मक) रूप प्रकाशित होता है। आचार्य अमितगति के शब्दों में- . .
निर्व्यापारीकृताक्षस्य यत्क्षणं भाति पश्यतः। तद्पमात्मनो ज्ञेयं शुद्धं संवेदनात्मकम् ॥-योगसार 1, 33
अर्थात्-इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति को रोककर मन को निर्विकल्प कर क्षणमात्र के लिए अन्तरंग में जो शुद्ध स्वरूप झलकता है वह शुद्ध ज्ञायक स्वरूप आत्मानुभूति है।
पाहुडदोहा : 245