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________________ को नष्ट करने वाली तृप्ति मुझे रंच मात्र भी नहीं हुई। यदि हमारी इच्छा के विषयभूत सभी इष्ट पदार्थ एक साथ मिल जाएँ, तो उनसे थोड़ा-सा भी सुख नहीं मिलता है। (आदिपुराण, 47/240-241) जब श्रीपाल जैसे चक्रवर्ती यह विचार करते हैं, तो फिर साधारण लोगों को विषय-कषायों से सुख कैसे प्राप्त हो सकता है? वास्तव में सच्चे सुख का निश्चय आत्मा में ही किया जा सकता हैं; क्योंकि परम सुख का निधान आत्मा ही है। आत्मा में सुख कहीं बाहर से नहीं आता।। सुख आत्मा का अनन्य गुण है। वह स्वाधीन है। सुख के उत्पन्न होने में मन, इन्द्रिय, पदार्थ आदि किसी की सहायता की आवश्यता नहीं होती। जो पराधीन है, वह सब दुःख है। पुण्य से उत्पन्न होने वाले भोग पराश्रित होने के कारण दुःखरूप हैं। किन्तु आत्मज्ञान (योग) से उत्पन्न हुआ ज्ञान (शुद्ध आत्मज्ञान) स्वाधीन होने के कारण सुखरूप अपना स्वरूप है। (योगसारप्राभृत, 9, 13) निर्मल ज्ञान ही स्थिर होने पर ध्यान कहलाता है। ध्यान शुद्धात्मा का होता है। इसलिए वही सबसे बड़ा मन्त्र है। शुद्धात्मा से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है। इसलिए जैनों का महान् मन्त्र ‘णमोकार' है। उस महामन्त्र में शुद्धात्मा की पाँच अवस्थाओं का वर्णन है। शुद्धात्मा ही सबसे श्रेष्ठ महामन्त्र है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं पाँचों परमेष्ठी जिस शुद्धात्मा की शरण ग्रहण करते हैं, वही एक शुद्धात्मा मेरे लिए शरणभूत है। निश्चय में एक शुद्धात्मा और व्यवहार में पाँच परमेष्ठी का शरण है। इसके अलावा न मन्त्र, न तन्त्र, न कोई देव और न देवी शरण ग्रहण करने योग्य, पूज्य नहीं है। उववास विसेस करेवि बहु एहु वि संवरु होइ। इच्छइ किं बहु वित्थरेण मा पुच्छिज्जइ कोइ ॥208॥ शब्दार्थ-उववासविसेस-उपवास विशेष (आत्मसाधना पूर्वक); करेवि-करके; बहु-बहुत; एहु वि-ऐसा ही; संवरु-संवर (कर्म का आना रुकना); होइ-होता है; इच्छइ-इच्छा करता है; किं-क्या; बहु-बहुत; वित्थरेण-विस्तार से; मा-मत, नहीं; पुच्छिज्जइ-पूछा जाता है; कोइ-कोई ___ अर्थ-विशेष रूप से आत्म-साधन पूर्वक उपवास करने से संवर (आते हुए 1. अ, क, ब, स उववास; द उववा; 2. अ, ब, स करेवि; क, द करिवि; 3. क, द, ब, स एहु; अ प्रति में छूटा हुआ है 4. अ, ब, स इच्छइ; क, द पुच्छइ; 5. अ, क, द वित्थरिण; ब, स वित्थरेण; 6. अ छिज्जइ; क, द, ब, स पुच्छिज्जइ। 244 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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