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जह विसयलुद्ध विसदा तह थावरजंगमाण घोराणं।
सव्वेसि पि विणासदि विसयविसं दारुणं होई ॥शीलपाहुड, गा. 21 ' अर्थात्-जैसे विषय-सेवन रूपी विषय विषयों में लुभाये हुए जीवों को विष देने वाला है, उसी प्रकार घोर तीव्र स्थावर-जंगम सब ही विष प्राणियों का विनाश करते हैं, तथापि इन सब विषों में विषयों का विष तीव्र है, दारुण है।
आचार्य उपदेश देते हैं कि अरे बुद्धिमानों! विशेष कहाँ तक कहें? अब शीघ्र ही स्त्री-पुत्र, धन, घर आदि पदार्थों से मोह छोड़कर ऐसा कोई काम करो, जिससे तुम को फिर जन्म न धारण करना पड़े। क्योंकि फिर उत्तम कुल, जिनधर्म का शरण, निर्ग्रन्थ सद्गुरु का उपदेश आदि मिलना दुर्लभ है। (पद्मनन्दि पंचविंशति, धर्मोपदेशामृत, 123)
मंतु ण तंतु ण धेउ' ण धारणु। ण वि उच्छासह किज्जइ कारणु ॥ एमइ परमसुक्खु मुणि सुव्वइ । एही गलगल कासु ण रुच्चइ. ॥207॥
शब्दार्थ-मंतु-मन्त्र; ण तंतु-नहीं तन्त्र; ण धेउ-न ध्येय; ण धारणु-न धारण; ण –नहीं ही; उच्छासह-श्वासोच्छ्वास का; किज्जइ-किया जाता है; कारणु-साधन; एमइ-ऐसा; परमसुक्खु-परम सुख (में); मुणि-मुनि सुब्बइ-सोता है; एही-ऐसी; गलगल-गड़बड़; कासु-किसी (को); ण
रुच्चइ-नहीं रुचती है। ... अर्थ-जहाँ न मन्त्र, न तन्त्र, न ध्येय, न धारण, न उच्छ्वास का कोई साधन .. है, वही मुनि परमसुख में सोता है। क्योंकि गड़बड़ किसी को नहीं रुचती है।
भावार्थ-जहाँ लौकिकता का लक्ष्य या ध्येय है, वहाँ परमार्थ नहीं है। इसलिए लौकिकता में मोक्ष-मार्ग नहीं है। जो मोक्ष के मार्ग में चलना चाहता है, उसे ख्याति, ..नामवरी, पूजा-सम्मान आदि लौकिक वांछाओं से दूर रहना चाहिए। साधु को ही नहीं, सद्गृहस्थ को भी तन्त्र-मन्त्र को और धार्मिक क्रियाओं को आजीविका का साधन नहीं बनाना चाहिए। बड़े-बड़े राजा-महाराजा, चक्रवर्ती भी यह भावना भाते थे कि मैंने इच्छानुसार चिरकाल तक दसों प्रकार के भोग भोगे, किन्तु इस भव में तृष्णा
1. अ कद; द धेउ; व धेव; स घेऊ; 2. अ उच्छासहि; क, द, ब, स उच्छासह; 3. अ, क, स परमसुक्खुः द, व परमसुक्ख; 4. अ, क, ब, स सुब्बइ द सुच्चइ; 5. अ, क, द, स, ण; बन।
पाहुडदोहा : 243