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संसार का मूल है। जगत के जीव कर्मों से सहित हैं और परमात्मा कर्मों से रहित है। इसलिए परमात्मा के कर्मों से उत्पन्न होने वाला न तो शरीर होता है और न भूख-प्यास। एक बार बीज के जल जाने पर फिर उससे वृक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार आठों कर्मों तथा दोषों से रहित हो जाने पर जीवन्मुक्त आत्मा के जन्म-मरण नहीं होता। इस कारण मोक्ष में राग-द्वेष, जन्म-मरण, संकल्प-विकल्प, मन
और इन्द्रियों का अभाव हो जाता है। केवल ज्ञायक रूप जानन, जानन अवस्था होती है। टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाव से ही अनन्त ज्ञानादि गुणों का विस्तार होता है और परमात्मप्रकाश रूप अनन्त काल तक बने रहते हैं।
विसया सेवहि जीव तुहु' छंडिवि अप्पसहाउ। अण्णई दुग्गई जाइसिहि तं एहउ ववसाउ ॥206॥
शब्दार्थ-विसया-विषयों (का) सेवहि-सेवन करते हो; जीव-हे जीव!; तुहु-तुम; छंडिवि-छोड़कर; अप्पसहाउ-आत्मस्वभाव (को); अण्णइं-अन्य को; दुग्गइं-दुर्गति को; जाइसिहि-जाओगे, प्राप्त होगे; तं-वह; एहउ-ऐसा ही; ववसाउ-व्यापार (है)। ___ अर्थ-हे जीव! तुम आत्म-स्वभाव को छोड़कर विषयों का सेवन करते हो। इसलिए अन्य गति में दुर्गति को प्राप्त होगे। यह ऐसा ही व्यापार है।
भावार्थ-आचार्य जिनसेन का कथन है कि जो औषधि रोग दूर नहीं कर सके, वह वास्तव में औषधि नहीं है। जो पानी प्यास नहीं बुझा सके, वह वास्तविक जल नहीं है और जो धन आपत्ति का विनाश नहीं कर सके, वह यथार्थ में धन नहीं है। इसी प्रकार विषयों से उत्पन्न होनेवाला सुख तृष्णा का नाश नहीं कर सके, तो वास्तविक सुख नहीं है। (आदिपुराण, श्लोक 168-169, पृ. 242)
___ आचार्य पूज्यपाद स्पष्ट रूप से कहते हैं कि आत्मा के स्वरूप से अनजान पुरुष शरीर में तथा पर पदार्थों में अपनत्व बुद्धि के कारण पुत्र-स्त्री आदि के सम्बन्ध में भ्रान्ति में बने रहते हैं। इस विभ्रम से अविद्या नाम का संस्कार दृढ़ होता है। इस कारण से अज्ञानी जीव जन्म-जन्मान्तरों में शरीर को ही आत्मा मानता है। (समाधितन्त्र, श्लोक 11-12)
आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में
1. अ तुहु; क, द, ब, स तुहूं; 2. अ, क, ब, स अप्पसहाउ; द अप्पुसहाउ; 3. अ अणइ क, द अण्णइ ब, स अण्णइं; 4. अ, क, द दुग्गइ; ब, स दुग्गइं; 5. अ, क जाइसिहि; द जाणिसिहि; ब, स जाइसिहिं।
242 : पाहुडदोहा