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नहीं, ‘सहजयोग' यथार्थ उपाय है, वैसे ही आत्मज्ञानपूर्वक 'ध्यानयोग' तथा 'धर्मध्यान से समाधि' होती है। आचार्य अमितगति ने 'योगसार' में इसका विशद विवेचन किया है। उसका स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
तुट्टे मणवावारे भग्गे तह' रायरोससब्भावे । परमप्पयम्मि अप्पे परिट्ठिए' होइ णिव्वाणं ॥205॥
शब्दार्थ-तुट्टे-टूटने पर; मणवावारे-मन का व्यापार; भग्गे-भग्न, नाश होने पर; तह-तथा; रायरोससब्भावे-राग-द्वेष के सद्भाव के परमप्पयम्मि-परमात्म पद में; अप्पे-आत्मा में; परिट्ठिए-परिस्थित होने पर; होइ-होता है; णिव्वाणं-निर्वाण, मोक्ष।
अर्थ-मन का व्यापार हट जाने पर और राग-द्वेष के सद्भाव की समाप्ति होने पर परम पद में स्थित होते ही अतीन्द्रिय ज्ञान-परमानन्द मय जो (अविचल) अवस्था है, वही निर्वाण है।
भावार्थ-ब्रह्मदेवसूरि का कथन है कि जब समस्त रागादि विकल्प समाप्त हो जाते हैं, तब निर्विकल्प ध्यान के प्रसाद से केवलज्ञान होता है। केवलज्ञान पूर्ण वीतराग अवस्था में ही प्रकट होता है। केवलज्ञानी का नाम अर्हन्त या जीवन्मुक्त है। भावमोक्ष होने की अवस्था को ही जीवन्मुक्ति कहा जाता है। वहाँ पर मन का कोई व्यापार नहीं होता। क्योंकि सभी सम्बन्धों के सूत्र टूट जाते हैं। जब सम्बन्ध ही नहीं, तब सम्पर्क भी नहीं होता। केवलज्ञान के प्रकट होने पर लोक-अलोक का प्रत्येक समय में जानना होता है। सम्पूर्ण लोकालोक को एक ही समय में केवलज्ञान से जानता हुआ अर्हन्त कहलाता है। जिसके जानने में कोई क्रम नहीं है। एक ही समय में जो अक्रम रूप से प्रत्यक्ष जानता है और जो परम आनन्दमय है, वह केवलज्ञान है। वीतराग परम समरसी भाव रूप जो परम अतीन्द्रिय, अविनाशी सुख जिसका लक्षण है, जो सदा अचलज्ञान में अवस्थित है और ज्ञानानन्द की लीन सहज अवस्था है, उसी का नाम मोक्ष है।
मोक्ष रबर की तरह नहीं है कि उसे कितना भी खींचा जाए तो भी सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती है। अतः अनुभूति का नाम मोक्ष नहीं है, किन्तु सहज, स्वाभाविक, वीतराग, निर्मल परिणति का अपने स्वभाव रूप सदा कायम रहने को ही मोक्ष कहते हैं।
जो वीतरागी चिदानन्द स्वभाव परमात्मा से भिन्न है, वह कर्म है और वही 1. अ तह; क, द, ब, स तह; 2. अ रायरोसं सासब्भे; द रोयरोससब्मावे; क, व, स रायरोससब्मावे; 3. अ, द, ब अप्पो; क, स अप्पे; 4. अ, द, ब परिट्ठिओ; क, स परिट्ठिए।
पाहुडदोहा : 241