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________________ तउ करि दहविहु धम्मु करि जिणभासिउ सुपसिद्ध। कम्महणिज्जर एहु जिय फुडु अक्खिउ मई तुज्झु ॥209॥ शब्दार्थ-तउ-तप; करि-करके; दहविहु-दशविध, दश प्रकार के धम्मु-धर्म; करि-करके; जिणभासिउ-जिनेन्द्र भगवान से कहे हुए; सुपसिद्ध-अत्यन्त प्रसिद्ध; कम्महं-कर्मों की; णिज्जर-निर्जरा; एहु-यह; जिय-जीव!; फुडु-स्पष्ट; अक्खिउ-कही गई; मइं-मैंने, मेरे द्वारा; तुज्झु-तुझ (से)। ___ अर्थ-हे जीव! तपपूर्वक जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे हुए अत्यन्त प्रसिद्ध दश प्रकार के (लक्षण रूप) धर्मों का पालन कर, जिससे कर्मों की निर्जरा हो। यह मैंने तुझे स्पष्ट बता दिया है। ___ भावार्थ-आचार्य जिनसेन ने धर्म के चार भेद कहे हैं-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप। धर्म के जितने तरह के भेद कहे गये हैं, उन सबमें सम्यग्दर्शन प्रधान है। क्योंकि सम्यग्दर्शन ज्ञान के बिना सम्यक्चारित्र तथा तप नहीं होता। धर्म सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है, लेकिन तप भी आवश्यक है। दश धर्मों में एक तप भी धर्म कहा गया है। गृहस्थ आश्रम में रहने वाले बुद्धिमानों के लिए आचार्य जिनसेन ने प्रतिदिन सम्यग्दर्शन पूर्वक दान, शील, उपवास तथा अर्हन्त आदि पंच परमेष्ठियों की पूजा करने का विधान किया है। ‘परमात्मप्रकाश' (2, 75) में कहा गया है कि वीतरागसंवेदनज्ञान रहित तप शीघ्र ही जीव के लिए दुःख का कारण है। टीका में स्पष्ट किया गया है कि विषयाभिलाषा रूप मनोरथों के विकल्प-जाल से रहित जो निज सम्यग्ज्ञान है, उससे रहित बाहरी पदार्थों के शास्त्र द्वारा जो ज्ञान है उससे कुछ कार्य नहीं है; काम तो एक निज आत्मा के जानने से है। जो देखे, सुने और भोगे हुए विषयों में रंजायमान है, ऐसा अज्ञानी पुरुष दान, पूजा, तप आदि करके यदि भोगों की अभिलाषा करता है, तो वह निदानबन्ध है जो काँटे की तरह चुभता है। यद्यपि पुण्य के प्रभाव से लोक की विभूति मिलती है, लेकिन वह सदा काल बनी नहीं रहती है और न मोक्ष का कारण है। धर्म से अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है। अतः उस धर्म का लक्षण सुख-शान्ति है। वह आत्मा का सहज स्वभाव है जो सदा काल एक रूप ही रहता है। जिसके अन्तरंग में क्षमा भाव है, उसके लिए भीतरी-बाहरी जगत् में कोई बैरी 1. अ, क, द, स कम्मह; ब कम्मह। 246 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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