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________________ भावार्थ-आचार्य जिनसेन कहते हैं कि जो पुरुष, स्त्री आदि विषयों का उपभोग करता है, उसका सारा शरीर काँपने लगता है, श्वास तीव्र हो जाती है और सारा शरीर पसीने से तर हो जाता है। ऐसा जीव यदि संसार में सुखी माना जाए, तो फिर दुःखी कौन होगा? जिस प्रकार कुत्ता दाँतों से हड्डी को चबाता हुआ अपने आपको सुखी मानता है, वैसे ही जो विषयों में मोहित हो रहा है, ऐसा मूर्ख प्राणी विषय के सेवन से उत्पन्न हुए परिश्रम मात्र को सुख मानता है। विषयों का सेवन करने से प्राणियों को केवल रति ही उत्पन्न होती है। यदि वह रति ही सुख मानी जाए, तो अपवित्र वस्तुओं के खाने में भी सुख मानना चाहिए। विषयी मनुष्य जिस प्रकार रतिपूर्वक प्रसन्नता से विषयों का उपभोग करते हैं, उसी प्रकार कुत्ता और सुअर भी प्रसन्नता के साथ विष्टा आदि अपवित्र वस्तुएँ खाते हैं। (आदिपुराण अ. 1, पृ. 243) पण्डितप्रवर टोडरमलजी के शब्दों में “क्षयोपशम रूप इन्द्रियों से तो इच्छा पूर्ण होती नही है, इसलिए मोह के निमित्त से इन्द्रियों को अपने-अपने विषय ग्रहण की निरन्तर इच्छा होती ही रहती है; उससे आकुलित होकर दुःखी हो रहा है। ऐसा दुःखी हो रहा है कि किसी एक विषय के ग्रहण के अर्थ अपने मरण को भी नहीं गिनता है। जैसे हाथी को कपट की हथिनी का शरीर स्पर्श करने की, मच्छ को बंसी में लगा हुआ माँस का स्वाद लेने की, भ्रमर को कमल-सुगन्ध सूंघने की, पतंगे को दीपक का वर्ण देखने की, और हरिण को राग सुनने की इच्छा ऐसी होती है कि तत्काल मरना भासित हो, तथापि मरण को नहीं गिनते। विषयों का ग्रहण करने पर उसके मरण होता था, विषय सेवन नहीं करने पर इन्द्रियों की पीड़ा अधिक भासित होती है। इन इन्द्रियों की पीड़ा से पीड़ित रूप सर्व जीव निर्विचार होकर जैसे कोई दुःखी पर्वत से गिर पड़े, वैसे ही विषयों में छलाँग लगाते हैं। नाना कष्ट से धन उत्पन्न करते हैं, उसे विषय के अर्थ खोते हैं। तथा विषयों के अर्थ जहाँ मरण होना जानते हैं, वहाँ भी जाते हैं। नरकादि के कारण जो हिंसादिक कार्य उन्हें करते हैं तथा क्रोधादि कषायों को उत्पन्न करते हैं।” (मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पृ. 47) विसयकसायह रंजियउ अप्पहिं चित्तु ण देइ। बंधिवि दुक्कियकम्मडा चिरु संसारु' भमेइ ॥202॥ शब्दार्थ-विसयकसायह-विषय-कषायों का; रंजियउ-रंगा हुआ (जीव); अप्पहि-अपने आप में, आत्मा में; चित्तु-चित्त; ण देइ-नहीं देता 1. अ, ब विसयकसायह; क, द, स विसयकसायह; 2. अ, क अप्पहं; अप्पह; द, स अप्पहि; 3. अ, ब न क, द, स ण; 4. अ, क, द, स बंधिवि; ब बंधवि; 5. अ, क, द चिरु; ब, स चिर; 6. अ, क, स संसारु; द, ब संसार। पाहुडदोहा : 237
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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