________________
है, लगाता है; बंधिवि-बँधकर; दुक्कियकम्मडा-दुष्कृत (खोटे) कर्मों को; चिरु-चिर, दीर्घ (काल तक); संसारु-संसार (में); भमेइ-भ्रमण करता है।
अर्थ-विषय-कषायों में रंजायमान होकर यह जीव अपने स्वरूप में ध्यान नहीं लगाता है। इसलिए दुष्कृत कर्मों का बन्ध कर चिरकाल तक संसार में घूमता है।
भावार्थ-यह निश्चित है कि विषयों के सुख के कारण ही यह पर द्रव्यों से राग करता है। आगम में ठीक ही कहा गया है कि जैसे विषय-सुख से प्रीति करता है, वैसे जिनधर्म से करे तो संसार में नहीं भटकता। जैनकुल में उत्पन्न होकर भी जो जैनधर्म में प्रीति नहीं करता और विषय-कषाय का सेवन कर क्रोधादि करता है, वह अपनी आत्मा को ठगने वाला है। यह संसारी प्राणी विषयों में इतना रंजायमान क्यों है? इसका समाधान करते हुए पण्डितप्रवर टोडरमलजी कहते हैं
"तथा मोह के आवेश से उन इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहण करने की इच्छा होती है और उन विषयों का ग्रहण होने पर उस इच्छा के मिटने से निराकुल होता है, तब आनन्द मानता है...तथा मैंने नृत्य देखा, राग सुना, फूल सूंघा, (पदार्थ का स्वाद लिया, पदार्थ का स्पर्श किया) शास्त्र जाना, मुझे यह जानना-इस प्रकार ज्ञेयमिश्रित ज्ञान का अनुभवन है, उससे विषयों की ही प्रधानता भासित होती है। इस प्रकार इस जीव को मोह के निमित्त से विषयों की इच्छा पाई जाती है।" (मोक्षमार्ग प्रकाशक, तीसरा अधिकार, पृ. 47)
__ आचार्य अमितगति कहते हैं कि “विषय-भोग समयानुसार स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं और ऐसा होने पर उनमें कोई गुण नहीं उत्पन्न होता है; उनसे कुछ भी लाभ नहीं होता है। इसलिए हे जीव! तू दुःख और भय को उत्पन्न करने वाले इन विषय-भोगों को धर्मबुद्धि से स्वयं छोड़ दे। कारण यह है कि यदि ये स्वयं स्वतन्त्रता से नष्ट होते हैं, तो मन में अतिशय तीव्र सन्ताप को करते हैं और यदि इनको तू स्वयं छोड़ देता है, तो फिर वे उस अनुपम आत्मिक सुख को उत्पन्न करते हैं जो सदा स्थिर रहने वाला एवं पूज्य है।” (सुभाषितरत्नसंदोह, श्लोक 413)
इंदियविसय चएवि वढ करि मोहहं परिचाउ। अणुदिणु झावहि परमपउ तो एहउ ववसाउ ॥203॥
शब्दार्थ-इंदियविसय-इन्द्रिय के विषय को; चएवि-छोड़कर; वढ-मूर्ख; करि-करके; मोहहं-मोह का; परिचाउ-परित्याग;
1. अ, क, द, स इंदियविसय; ब विसयकसाय; 2. अ झावउ; क झायहि; द, स झावहि; 3. अ वउसाउं; क, द, ब, स ववसाउ।
238 : पाहुडदोहा