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________________ प्रवृत्त होकर चिरकाल दुराचारी रहा। अब जो तू आत्मा का कल्याण करने वाले अपने ही ज्ञान-वैराग्य आदि भावों को ग्रहण करे, तो परमात्मा दशा को प्राप्त हो सकते हो, केवलज्ञानी हो सकते हो। फिर, अनन्तकाल के लिए सहज अतीन्द्रिय परमसुख की उपलब्धि होती है। (आत्मानुशासन, श्लोक 193) आचार्य शिवकोटि कहते हैं कि उन्मार्ग में जाने वाले दुष्ट घोड़ों का जिस प्रकार लगाम लगाने पर निग्रह हो जाता है, उसी प्रकार तत्त्वज्ञान की भावना से इन्द्रिय रूपी घोड़े वश में कर लिए जाते हैं।(भगवती आराधना, गा. 1837) यदि लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्यक्ष में संसारी जीव विकल्प से सहित हैं, किन्तु योगी सभी विकल्प-जाल से रहित निर्मूल ज्ञान-दर्शनमयी स्वभाव से अर्थात् परमात्मा से भेंट करता है। ध्याता ऐसे ध्याता है कि मैं निज शुद्धात्मा का ध्यान करता हूँ। ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मा परभावों से रहित शुद्ध है, निश्चल एकरूप है, ज्ञानस्वरूप, दर्शनमयी है, अपने अतीन्द्रिय स्वभाव से यह एक परम तत्त्व है जो अपने स्वभाव में निश्चल है तथा पर के आलम्बन से रहित स्वाधीन है। यही भावना आत्मानुभव को जागृत करती है। (आ. कुन्दकुन्द : प्रवचनसार, गा. 104-2) पं. द्यानतराय जी ‘द्यानतविलास' (पद 32) में कहते हैं चेतनजी तुम जोड़त हो धन, सो धन चलै नहीं तुम लार। जाको आप जानि पोषत हो, सो तन जरिके है है छार ॥ विषय-भोग को सुख मानत हो, ताको फल है दुःख अपार। यह संसार वृक्ष सेमर को, मानिक कह्यो मैं कहूँ पुकार ॥ विसया चिंति म जीव तुहु विसय ण भल्ला होति । सेवंताह वि महुर वढ पच्छई दुक्खई दिति' ॥201॥ शब्दार्थ-विसया-विषयों (की); चिंति-चिन्ता; म-मत (कर); जीव-हे जीव!; तुहु-तू, तुम; विसय-विषय; ण भल्ला-भले नहीं; होंति-होते हैं; सेवंताहं वि-सेवन करने वालों के भी; महुर-मधुर (हैं); वढ-मूर्ख; पच्छई-पीछे से, बाद में; दुक्खइं-दुःखों को; दिति-देते हैं। अर्थ-हे जीव! तू विषयों की चिन्ता मत कर। विषय कभी भी भले नहीं होते। हे मूर्ख! सेवन करते समय तो विषय मधुर लगते हैं, लेकिन पीछे दुःख देते 1. अ तूं क, द, ब, स तुहूं; 2. अ, ब, न; क, द, स ण; 3. अ हुंति; क, द, ब, स होंति; 4. अ, ब सेवंताह; क, द, स सेवंताह; 5. अ पच्छइ क, द, ब, स पच्छइं; 6. अ दुक्खई; क, द, ब, स दुक्खइं; 7. अ, क, द, स दिति; ब देंति। 26 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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