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कर नैतिकता, आत्मानुशासन पर बल देते हुए आध्यात्मिक जीवन जीने की प्रेरणा देते रहे हैं।
डॉ. शाही का यह कथन तो सत्य है कि हिन्दी के सन्त काव्य में योग-साधना के तत्त्व केवल बाह्याचार तथा कर्मकाण्ड के निरोध अथवा विकल्प रूप में स्वीकृत हैं। यौगिक क्रियाएँ अपने आप में लक्ष्य नहीं हैं। साधना आत्मानुभव पर आधारित है । किन्तु इससे योगमत के प्रभाव की सिद्धि नहीं हो जाती । जैन सन्त कवियों ने शून्य (निर्विकल्प ), सहज ( स्वाभाविक, आत्मस्वभाव), समाधि ( आत्म - लीनता), साधना, ध्यान, धारणा आदि सामान्य शब्दों का प्रयोग पारिभाषिक शब्दावली के रूप में किया है। छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक एक ऐसा युग था जिसमें योग, मन्त्र-तन्त्र आदि का समन्वयवादी स्वरूप साहित्य के माध्यम से अभिव्यंजित किया जा रहा था। पारसनाथी और नेमिनाथी शाखा के योगियों का सम्बन्ध जैन परम्परा से रहा है । अतः सन्त-साधना एवं योग-तत्त्व योगमत की देन नहीं है । डॉ. शाही का यह कथन समुचित प्रतीत होता है कि सन्त काव्य-धारा में योग अनिवार्य तत्त्व नहीं है । उनके ही शब्दों में
“सन्त कवियों के यहाँ योगसाधना सर्वतोभावेन स्वीकृत नहीं है। दूसरे शब्दों योग-साधना के तत्त्व इनके यहाँ सिर्फ बाह्याचारों और कर्मकाण्डों के निरोध अथवा विकल्प के रूप में स्वीकृत हैं । यौगिक क्रियाएँ अपने आप में लक्ष्य नहीं हैं। योग इनके लिए कोई अपरिहार्य तत्त्व नहीं है । ये अपनी आवश्यकता के हिसाब से योग के तत्त्वों को स्वीकार करते हैं। आत्मानुभव पर आधारित अन्तस्साधना, ध्यान, धारणा, मन की पवित्रता का आग्रह, समाधि - साधना आदि योगमत के प्रभाव की ही अभिव्यक्तियाँ हैं जो बौद्ध-सिद्धों, जैन मुनियों से होती हुई सन्तों तक आयी हैं । " इतना अवश्य है कि जैन सन्तकाव्य सहज योग-साधना की उस प्राचीनतम योग-परम्परा की धारा से समन्वित है, जिसका स्पष्ट वर्णन 'वातरशना' मुनियों के रूप में 'ऋग्वेद' में परिलक्षित होता है।
• रचना का स्वरूप और छन्द
'पाहुडदोहा' दोहा छन्द में निबद्ध प्रसिद्ध 'दूहाकाव्य ' है । सम्पूर्ण रचना आदि से अन्त तक कुछ पद्यों को छोड़ कर दोहा रूप में उपलब्ध होती है। 220 पद्यों में से 211 दोहा छन्द में रचित हैं । दोहा छन्द का स्वरूप इस प्रकार है :
प्रथम और तृतीय चरण की मात्राएँ 13
द्वितीय और चतुर्थ चरण की मात्राएँ 11
1. डॉ. रमेशचन्द्र मिश्र : सन्त- साहित्य और समाज, दिल्ली, 1994, पृ. 139
2. डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी : नाथसिद्धों की बानियाँ, 13
3. डॉ. सदानन्द शाही : अपभ्रंश के धार्मिक मुक्तक और हिन्दी सन्त काव्य, पृ. 79 से
उधृत
प्रस्तावना : 21