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नहीं है कि वैदिक कर्म-काण्ड, यज्ञ और हिंसा की प्रतिक्रिया स्वरूप सन्त-काव्य का जन्म हुआ। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में तथा आचार्य कुन्दकुन्द (ई. पू. 8) के युग में केवल शिथिलाचार का विरोध था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैन-बौद्धों की श्रमण सन्त-धारा ई. पू. छठी शताब्दी से वैदिक धर्म की धारा के समानान्तरं सतत प्रवहमान रही है'। सन्त काव्य-धारा के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि "संसार के सम्बन्ध में अपने विचार स्थिर करते समय नाथपन्थियों ने पूर्ववर्ती सिद्धों और जैन कवियों का ही अनुसरण किया है। वे भी संसार को अयथार्थ मानते हैं।...सिद्धों की भाँति कबीर ने संसार को सेमरका फूल, धुएँ का धौरहर, कुहरे का धुन्ध, आदि उपमानों का प्रयोग किया है।"
सिद्धकवि सरहपा जिसे संकल्पों से निर्मित, चित्तकी प्रक्षिप्त माया कहते हैं और कबीरदास जिसे 'महाठगिनी' कहते हैं, उसे अपभ्रंश के जैन कवि भ्रान्ति मात्र कहते हैं। सुप्रभ मुनि इस माया से आत्मा की रक्षा करने का उपदेश देते हैं। मुनि रामसिंह इसे सूखी हुई घास, पयार के समान निःसार एवं तुच्छ कहकर छोड़ने का उपदेश देते हैं। उनके ही शब्दों में
__ अप्पा सणणाणमउ सयलु वि अण्णु पयालु।
इम जाणेविणु जोइयउ छंडहु मायाजालु ॥ पाहुडदोहा, 70 संसार में भटकने का मूल कारण भ्रान्ति, संकल्प-विकल्प रूप मायाजाल है। इसलिये अधिकतर जैन कवियों ने संसार की क्षणभंगुरता का वर्णन किया है। इसी प्रकार जैन सन्तों का दर्शन, अखण्ड परमात्मस्वरूप आत्मा की अवधारणा तथा अखण्ड परमात्मा की विविध खण्ड रूप कल्पनाओं का विभिन्न प्रतीकों, उपमानों तथा रूपक आदि के माध्यम से चित्रण किया गया है। सन्तकवि आनन्दघन कहते हैं कि राम, रहीम, महादेव, पार्श्वनाथ, ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। इनके नामों में भिन्नता है; किन्तु ये सभी एक अखण्ड आत्मा की खण्ड कल्पनाएँ हैं। जैसे मिट्टी से बनने वाला बर्तन अनेक रूपों को धारण करता है, वैसे ही एक अखण्ड आत्मा में अनेक रूपों की कल्पनाओं का अभिधान है। क्योंकि जीव जब निज पद में रमता है, तब राम है, दूसरों पर रहम करे तब रहीम, कर्मों को तराशे तब कृष्ण तथा निर्वाण प्राप्त करे तब महादेव' । इतना अवश्य है कि जहाँ सिद्धों की साधना पूर्णतः वैयक्तिक रही, वहीं जैन सन्त कवि बिना किसी भेद-भाव के समाज में व्याप्त दुराचार का विरोध
1. डॉ. हरिश्चन्द्र वर्मा : हिन्दी-साहित्य का आदिकाल, चण्डीगढ़, 1988, पृ. 136-137 2. डॉ. सदानन्द शाही : अपभ्रंश का धार्मिक मुक्तक काव्य और हिन्दी की मध्यकालीन सन्त
काव्य-धारा, इलाहाबाद, 1991, पृष्ठ 33 से उद्धृत 3. वैराग्यसार, दोहा 42 4. आनन्दघन पद संग्रह, बम्बई, पद 67
20 : पाहुडदोहा