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रचित है। मुनि रामसिंह ने ‘सन्त' शब्द का प्रयोग समाधि में रहने वाले 'योगी' के लिए किया है। निर्विकल्प समाधि की साधना करने वाले योगियों की सुदीर्घ परम्परा रही है। वेदों, पालि ग्रन्थों तथा पुरातत्त्व आदि से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण प्रमाण आज भी उपलब्ध होते हैं। सन्तों की इस सुदीर्घ परम्परा में मुनि रामसिंह अपभ्रंश के कवियों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। यद्यपि उनके पूर्व मुनि श्री योगीन्दुदेव 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार' जैसी महत्त्वपूर्ण रचनाओं का प्रणयन कर चुके थे; जिनमें उनका वैशिष्ट्य परमात्मा की उपलब्धि हेतु रहस्यवादी अभिव्यंजना है। लेकिन मुनि रामसिंह में स्पष्ट रूप से विद्रोही स्वर तथा आत्मानुभूति की अखण्ड साधना की शुद्ध परम्परा एवं उन्मुक्त रहस्यवादी अभिव्यंजना परिलक्षित होती है। अतः योगसाधनापरक शब्दों का प्रयोग भी ‘पाहुडदोहा' में प्रचुरता से हुआ है जो 'परमात्मप्रकाश' में विरल है।
__ जैन वाङ्मय में निम्नलिखित शब्द 'हठयोग' से हटकर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त उपलब्ध होते हैं। ऐसे शब्द हैं-सन्त, आगम, अचित्, शिव, शक्ति, सगुण, निर्गुण, अम्बर, लय, अक्षर, नाद, अनहद, वाम, दक्षिण, रवि, शशि, पवन, काल, मन्त्र, समरस, शून्य, तन्त्र, ध्येय, धारणा आदि। कहीं-कहीं तो हठयोग की साधना का निषेध करने के लिए ऐसे शब्दों का उल्लेख मिलता है। यथार्थ में श्रमण सन्त-परम्परा सहज योग को मानती है, वही इसकी साधना में है। अतः इसमें हठयोग नहीं है। - डॉ. सिंह का यह कथन उचित ही है कि "जैन सन्त कवियों एवं इनके पूर्ववर्ती कुछ जैनाचार्यों ने हिन्दी के सन्तकाव्य को प्रेरित करने में प्रभूत योग दिया है। हिन्दी निर्गुण सन्तकाव्य बहुलांशतः प्रेरित, प्रभावित हुआ है-यह निःसन्देह कहा जा सकता है। जैनागमों में आसन, नाड़ी, चक्र, मुद्रा, अनाहतनाद, प्राणायाम, ध्यान, धारणा, समाधि आदि का उल्लेखनीय विवरण उपलब्ध होता है। हिन्दी के सन्तकाव्यों पर इसका यथेष्ट प्रभाव लक्षित होता है। यह प्रभाव बहु आयामी है। केवल काव्यात्मक दृष्टि से ही नहीं, भावाभिव्यंजना, शैली, प्रतीक-योजना, बिम्ब-विधान आदि के प्रयोग में अपभ्रंश के 'परमात्मप्रकाश', 'योगसार', 'पाहडदोहा', 'सावयधम्मदोहा', आदि का हिन्दी साहित्य को महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। 'संत' शब्द और सन्त का स्वरूप दोनों ही मूल में श्रमण धारा की देन हैं। महर्षि यास्क के निरुक्त' में 'सन्तत' शब्द है जो लगातार अर्थ का वाचक है; किन्तु 'सन्त' शब्द उसमें उपलब्ध नहीं होता। यथार्थ में 'सन्त' का भावार्थ है-ज्ञान और वैराग्य का समन्वित मूर्तिमान रूप। यह किसी क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम न हो कर सहज होता है। अतः यह कथन उचित
1. डॉ. रामेश्वरप्रसाद सिंह : सन्त साहित्य में योग का स्वरूप, पृ. 59 से उद्धृत। 2. द्रष्टव्य है-डॉ. पवनकुमार जैन : महावीर वाणी के आलोक में हिन्दी का सन्तकाव्य पृ. 93-94
तथा-डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी : मध्यकालीन धर्म-साधना, पृ. 52-54
प्रस्तावना: 19