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जिस प्रकार एक बार बीज के जल जाने पर फिर उससे वृक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार मोह रूपी बीज के नष्ट हो जाने पर संसार की उत्पत्ति नहीं होती। मिथ्यात्व रहित भाव ज्ञानमय है। आचार्य कुन्दकुन्द के शब्दों में
पक्के फलम्हि पडिए जह ण फलं बज्झए पुणो विंटे।
जीवस्स कम्मभावे पडिए ण पुणोदयमुवेदि ॥समयसार, गा. 168 अर्थात्-जैसे पका हुआ फल एक बार डंठल से गिर जाने पर फिर वह उसके साथ सम्बन्ध को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार कर्मोदय से उत्पन्न होने वाला भाव जीव भाव से एक बार अलग होने पर फिर जीवभाव को प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार रागादि के साथ मिला हुआ ज्ञानमय भाव उत्पन्न होता है। यदि ज्ञान एक बार रागादिक से भिन्न (शुद्ध, वीतराग भाव) परिणमित हो तो वह पुनः कभी भी रागादि के साथ मिश्रित नहीं होता। कर्मग्रन्थ की भाषा में इसे ही 'निर्जरा' कहा जाता है। क्योंकि फिर सदा के लिए ज्ञान राग से अलग हो गया। अब फिर कभी वह राग से मिलने वाला नहीं है। अतः ज्ञान ज्ञान रूप (शुद्ध ज्ञान) ही रहता है।
उव्वस वसिया' जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु। . बलि किज्जउ तसुजोइयहि जासुण पाउण पुण्णु 193॥
शब्दार्थ-उव्वस-उजाड़ (को); वसिया-बस्ती, आवास; जो करइ-जो करता है; वासिया-बसे हुए, बस्ती (को); करइ जु-करता है जो सुण्णु-सूना; बलि किज्जउ-बलिहारी की जाती है; तसु-उसकी (की); जोइयहि-योगी की; जासु-जिसके ण पाउ-न पाप (है); ण पुण्णु-न
पुण्य (है)। .. अर्थ-हे जोगी! जो उजाड़ को बसाता है और बसे हुए को उजाड़ता है, उसकी बलिहारी है; क्योंकि उसके न पाप है और न पुण्य।।
भावार्थ-इस दोहे का अर्थ गूढ़ है। अनादि काल से चित्त में शुभ, अशुभ ' विकल्प बसे हुए हैं। आचार्य अमितगति कहते हैं-“शुभाशुभ-विकल्पेन कर्मायाति
शुभाशुभम्” अर्थात्-शुभ-अशुभ विकल्प के द्वारा शुभ-अशुभ कर्म का आगमन होता है। जिनवाणी क्रमवार यही समझाती है कि प्रथम अशुभ को उजाड़कर शुभ को बसाओ और फिर बसे हुए शुभ को उजाड़ कर शुद्धोपयोग को बसाओ। पहले ग्रहण
1. अ, क, द, स वसिया; ब वसियो; 2. अ, स बलि; क, द, ब वलि; 3. अ तस; क, द, ब, स तसु; 4. अ जोइयहिं; क, द, स जोइयहि; ब जोइयइ; 5. अ, क, सण; द, ब वि; 6. अ, क, द, स ण; ब न।
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पाहुडदोहा : 227