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कराते हैं, फिर उसी को छुड़ाते हैं। जो घोर हिंसा करता है उसे एक ही तरह की हिंसा में लगाते हैं और फिर उसे भी छुड़ाकर पूर्ण अहिंसक होने का उपदेश देते हैं। ऊपर के दोहे का एक अर्थ यह है कि कर्म के संयोग में जब तक आत्मा है, तब तक बस्ती है। क्योंकि नामकर्म के उदय से शरीर मिलता है और शरीर है तो पाँचों इन्द्रियाँ हैं। पाँचों इन्द्रियों और मन के रहने पर नगर, गाँव, बस्तियाँ बस जाती हैं और शरीर में से आत्मा के निकल जाने पर इन्द्रियों की बसी हुई नगरी उजड़ जाती है। चारों ओर सुनसान लगने लगता है। शुद्धोपयोग में रहने वाले मुनिराज शुभोपयोग में जब आते हैं, तब इन्द्रियों की नगरी बसी हुई दिखलाई पड़ती है और पुनः अन्तर्मुख हो शुद्धात्मा के स्वभाव में स्थिर हो जाते हैं, जिससे बसी हुई नगरी उजड़ जाती है। ऐसे सन्त विरले ही होते हैं। यही कारण है कि साधु-सन्तों के पुण्य-पाप नहीं होते। वे रत्नत्रय की मूर्ति होते हैं। मुनिश्री योगीन्द्रदेव 'बसाना' और 'उजाड़ना' समझाते हुए कहते हैं
देहि वसंतें जेण पर इंदिय-गामु वसेइ।
उव्वसु होइ गयेण फुडु सो परमप्पु हवेइ ॥परमात्मप्रकाश 1, 44 अर्थात-जिसके केवल देह में रहने से इन्द्रिय-ग्राम बसता है और जिसके परभव में चले जाने पर निश्चय से उजाड़ हो जाता है, वह परमात्मा है। आगे कहा है-"जो ऊजड़ हैं अर्थात् पहले कभी नहीं हुए ऐसे शुद्धोपयोग रूप परिणाम को स्वसंवेदन ज्ञान के बल से बसाता है और जो पहले के बसे हुए मिथ्यात्वादि परिणाम हैं उनको उजाड़ देता है। जिस योगी के पाप-पुण्य नहीं हैं, मैं उस योगी की पूजा करता हूँ। योगीन्दुदेव के शब्दों में
उव्वस वसिया जो करइ वसिया करइ जु सुण्णु।
बलि किज्जउं तसु जोइयहिं जासु ण पाउ ण पुण्णु ॥परमात्म. 2, 160 भाव यही है कि निर्विकल्प ध्यान में लीन होने वाले साधु-सन्त अशुद्ध भाव रूपी बस्ती को उजाड़कर शुद्धात्मानुभूति रूप शुद्धोपयोग परिणामों को निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान के बल से बसाते हैं। वे धन्य हैं, पूज्य हैं।
कम्मु पुराइउ' जो खवइ अहिणव पेसु ण देइ। अणुदिणु झायइ देउ जिणु सो परमप्पउ होइ ॥194॥
शब्दार्थ-कम्मु-कर्म को; पुराइउ-पूर्व के, पहले के जो खवइ-जो खपाता है, नष्ट करता है; अहिणव-अभिनव, नये; पेसु-प्रवेश; ण 1. अ परायउ; क, व पुरायउ; द, स पुराइउ; 2. अ, क, द, स देउ; व देव; 3. अ, द जोइ; क, स होइ। ब प्रति में पाठ छूटा हुआ है।
228 : पाहुडदोहा