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________________ मिथ्यादृष्टि जीव को होता है। इसलिए वह सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर का उत्कृष्ट बन्ध करता है। मिथ्यात्व के बिना अनन्त संसार नहीं बँधता। मिथ्यात्व के कारण जीव अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता है। कहा भी है या 'जीवयामि जीव्येऽहं मार्येऽहं मारयाम्यहम्। निपीडये निपीड्येऽहं' सा बुद्धिर्मोहकल्पिता ॥योगसार. 4, 12 अर्थात्-मैं जिलाता हूँ-जिलाया जाता हूँ, मारता हूँ-मारा जाता हूँ, पीड़ित करता हूँ-पीड़ित किया जाता हूँ, यह जो बुद्धि है वह मोह से निर्मित है। 'मोह' का अर्थ दर्शन मोहनीय या मिथ्यात्व है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसी बुद्धि वाले जीव को ‘सो मूढो अण्णाणी' मूढ (मिथ्यादृष्टि), अज्ञानी कहा है। विशेष जानकारी के लिए (भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित योगसारप्राभृत, पृ. 82-84, अधिकार 4, श्लोक 9 से 12 तक) अध्ययन करने योग्य हैं। संतु ण दीसइ तत्तु ण वि संसारहिं भमंतु। खंधावारिउ जिउ भमइ अवराडइहिं रहंतु 192॥ . शब्दार्थ-संतु-साधु, सन्त; ण दीसइ-नहीं दिखाई देता है; तत्तु-तत्त्व ण-नहीं; वि-भी; संसारेहि-संसार में भमंतु-भ्रमण , करते हुए; खंधावारिउ-स्कन्धावार, फौज वाला; जिउ-जीव; भमइ-घूमता है; अवराडइहिं-अन्य की (में); खंतु-रक्षा करता हुआ। अर्थ-संसार में घूमते हुए न कोई सन्त दिखता है और न कोई तत्त्व। जीव इन्द्रियों की फौज सहित पर की रक्षा में लगा रहता है। भावार्थ-जो प्रत्येक समय राग-द्वेष भावों में आसक्त रहता है, उसे राग-द्वेषमय संसार दिखता है। उसकी दृष्टि में न कोई सन्त है और न कोई परमतत्त्व है। आत्मा का अनुभव भी उसे रागमय ही होता है। दिन-रात वह इन्द्रियों के विषयों का सेवन करता हुआ शरीर की रक्षा में संलग्न रहता है। दूसरे के उपकार या अपकार करने की बुद्धि होने से मोह या मिथ्यात्व से मलिन बुद्धि वाला अपने अन्य गुणों को भी मलिन करता है। जिस प्रकार वस्त्र कीचड़ के द्वारा अपने संग से मैला किया जाता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व के द्वारा अपने संग से चारित्र, दर्शन तथा ज्ञान मलिन किया जाता है। (योगसार. अ. 4, श्लोक 15) वस्तुतः दर्शन, ज्ञान, चारित्र में जो मालिन्य है, वही दोष को स्वीकार करता है; किन्तु एक बार जो पूर्ण रूप से निर्मल हो गया है, वह फिर मलिन नहीं होता। 1. अ, क, स खंधावारिउ; द खंधायारिउ; ब खंधवारउ; 2. अ अवडारइहि; क, द, ब, स अवराडइहिं; 3. अ रडंतु; क, द, स रहंतु; व रहत। 226 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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