________________
बद्धउ तिहुयणु' परिभमइ मुक्कउ पउ वि ण दे। दिक्खु ण जोइय' करहुलउ विवरेरउ पउ देइ ॥191॥
शब्दार्थ-बद्धउ-(कर्मों से) बँधा हुआ; तिहुयणु-तीनों लोक (में); परिभमइ-परिभ्रमण करता है; मुक्कउ-मुक्त; पउ वि-पग भी; ण देइ-नहीं देता, नहीं रखता है; दिक्खु ण-देखो ना!; जोइय-हे योगी!; करहुलउ-ऊँट (को); विवरेरउ-विपरीत; पउ देइ-पग देता है, पैर रखता
अर्थ-जो कर्मों से बँधा हुआ है, वही तीन लोक में भ्रमण करता है और जो मुक्त है वह अचल हो गया है, एक पग भी इधर-उधर नहीं देता। हे जोगी! ऊँट को देखो न! वह विपरीत पग धरता है।
भावार्थ-सांसारिक जीवन में होने वाले सुख-दुःखादि परिणाम तथा सभी कार्य कर्मों के द्वारा होते हैं। आचार्य अमितगति कहते हैं
कर्मणा निर्मितं सर्वं मरणादिकमात्मनः। कर्मावितरतान्येन कर्तुं हर्तुं न शक्यते ॥योगसारप्राभृत 4, 11
अर्थात्-आत्मा के जन्म-मरण आदि सभी कार्य कर्म के द्वारा निर्मित हैं। जब कोई किसी को कर्म नहीं दे सकता है, तो कर्मनिर्मित कार्य का कर्ता-हर्ता कैसे हो सकता है? कर्मशास्त्र के अनुसार आयुकर्म के उदय से जीवन बनता है, सातावेदनीय कर्म का उदय सुख का और असातावेदनीय कर्म का उदय दुःख का कारण होता है। जब माता-पिता भी बालक के रोगग्रस्त होने पर उसे डाक्टर, वैद्य से दवा दिला सकते हैं, लेकिन अपना सुख देकर उसे सुखी नहीं कर सकते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि कोई भी जीव किसी अन्य जीव को कर्म नहीं देता है और न उसका कर्म लेता है, तो फिर वह उस जीव के कर्म-निर्मित कार्य का कर्ता-हर्ता कैसे हो सकता है? ... जिनागम में यह अनेक शास्त्रों का उल्लेख है कि मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्या भाव के कारण अन्य प्राणी के जिलाने, मारने आदि के परिणाम करता हुआ निरन्तर अनेक प्रकार के कर्म बाँधता है। आचार्य अमितगति के वचन हैं-"बध्नाति विविधं कर्म मिथ्यादृष्टिर्निरन्तरम्” अर्थात् मिथ्यादृष्टि जीव पर के मारणादि विषयक परिणाम करता हुआ निरन्तर नाना प्रकार के कर्मों को बाँधता है। सबसे अधिक बन्ध
1. अ तिहिंयणु; क, स तिहुयणु; द तिहुवणु; ब तिहुअणु; 2. अ पागुण; क पउ जु ण; द पउ वि ण; व पइ गुणदेव; स पउ णहि; 3. अ, क, द, स दिक्खु; ब देक्खु; 4. अ जोईय; क, द, ब, स जोइय।
पाहुडदोहा : 225