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है। क्योंकि वह मन, वचन, काय और युक्ति से भी अगम्य है। मन्त्र, तन्त्र, आसन आदि भी मात्र बाहरी साधन हैं। वास्तव में आत्मध्यान की कला के प्रकट होने पर ही सहज रूप से चित्त निश्चल हो जाता है और आत्मज्ञान प्रकट हो जाता है। पं. बनारसीदास के शब्दों में
जिन्हके हिये मैं सत्य सूरज उदोत भयौ, फैली मति किरन मिथ्यात तम नष्ट है। जिन्ह की सुदिष्टि मैं न परचै विषमता सौं, समता सौं प्रीति ममता सौं लष्ट पुष्ट है ॥ जिन्ह के कटाक्ष मैं सहज मोखपंथ सधै, मन को निरोध जाके तन कौ न कष्ट है। तिन्ह के करम की कलोलैं यह है समाधि,
डोलै यह जोगासन बोलै यह मष्ट है॥-समयसारनाटक, निर्जराद्वार, 28 अर्थ-जिनके हृदय में अनुभव का सत्य सूर्य प्रकाशित हुआ है और सुबुद्धि रूप किरणें फैल कर मिथ्यात्व का अन्धकार नष्ट करती हैं, जिनके श्रद्धान में राग-द्वेष से नाता नहीं है, समता से जिनका प्रेम है और ममता से द्रोह है, जिनकी चितवन मात्र से मोक्षमार्ग सधता है और जो कायक्लेश आदि के बिना योगों का निग्रह करते हैं, उन सम्यग्ज्ञानी जीवों के विषय-योग भी समाधि हैं, चलना-फिरना योग व आसन हैं और बोलना-चालना ही मौनव्रत है।
यथार्थ में जैनधर्म हठयोग नहीं मानता है। इसलिए योग-क्रियाओं से मोक्ष-मार्ग प्रारम्भ नहीं होता।
अक्खरचडिया' मसिमिलिया पाढंता गय खीण। एक्क ण जाणी' परम कला कहिं उग्गउ कहिं लीण ॥174॥
शब्दार्थ-अक्खरचडिया अक्षरारूढ़, अक्षरों में अंकित: मसिमिलियास्याहीमिश्रित, स्याही से लिखे हुए; पाढंता-पढ़ते हुए; गय-हो गए; खीण-क्षीण; एक्क-एक; ण जाणी-नहीं जानी; परम कला; कहिँ-कहाँ से (मन); उग्गउ-ऊगा है, उत्पन्न हुआ है; कहिं-कहाँ; लीण-विलीन (होता है)।
1. अ अखरचडिया; क, द, ब, स अक्खरचडिया; 2. अ मसिघसिया; क, द, स मसिमिलिया; ब मसिमिल्लिया; 3. अ गइ; क, द, ब, स गय; 4. अ, क, द, स खीण; ब खीणु; 5. अ जाणीय; क, द, स जाणी; ब जाणहिं; 6. अ, ब कहि; क, द, स कहिं; 7. अ उयउ; क, द, ब, स उग्गउ।
पाहुडदोहा : 203