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भावार्थ-योग-साधना में साधक को योगाभ्यास की विशेष स्थिति में अनहद नाद (बिना बजाये मधुर संगीतमय ध्वनि) स्वतः सुनाई पड़ता है, किन्तु वह ध्यानस्थ स्थिति है। वहाँ पर कोई वचन-व्यापार नहीं है। साधना-काल में यह तभी सम्भव होता है, जब मन पाँचों इन्द्रियों के साथ विलय को प्राप्त हो जाता है। जब तक मन समाधि में ज्ञानानन्द स्वभावी परमतत्त्व के साथ एकता को प्राप्त नहीं होता, तब तक उछल-कूद करता रहता है। तरह-तरह के विकल्प करना-यह साधना का लक्षण नहीं है। आत्मा तथा परमात्मा वीतराग, निर्विकल्पक है, इसलिए उसे प्राप्त करने के लिए वीतराग, निर्विकल्प होने की साधना करना ही परमार्थ है।
परमार्थ ही परमपद को पाने का एक मात्र मार्ग है। क्योंकि ज्ञान के अतिरिक्त सभी गुण निर्विकल्प हैं। विकल्प दो प्रकार का होता है-रागात्मक और ज्ञानात्मक। राग के होने पर ही ज्ञान में योगों की प्रवृत्ति का परिवर्तन होता रहता है। एक ज्ञान के विषयभूत पदार्थ से विषयान्तर को प्राप्त होने वाली जो ज्ञेयाकार रूप ज्ञान की पर्याय है, वह विकल्प कही जाती है। (पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध, श्लोक 834) पण्डितप्रवर टोडरमलजी के शब्दों में-“राग-द्वेष के वश तें किसी ज्ञेय के जानने तैं छुड़ावना, ऐसें बार-बार उपयोग को भ्रमावना, ताका नाम विकल्प है। बहुरि जहाँ वीतराग रूप होय जाकों जानै है, ताकों यथार्थ जानै है। अन्य अन्य ज्ञेय के जानने के अर्थि उपयोग कों नाहीं भ्रमावै है, तहाँ निर्विकल्पदशा जाननी।" (मोक्षमार्ग प्रकाशक,7)
अखइ णिरामइ परमगइ अज्ज वि लउ ण लहंति। भग्गी मणहं ण भंतडी तिम दिवहडा गणंति ॥170॥
शब्दार्थ-अखइ-अक्षय; णिरामइ-निरामयः परमगइ-श्रेष्ठ गति; अज्ज वि-आज भी; लउ-विलय (को); ण लहति-नहीं प्राप्त करते हैं; भग्गी-भग्न हुई; ण-नहीं; मणहं-मन की; भंतड़ी-भ्रान्ति; तिम-तथा; दिवहडा-दिन; गणंति-गिनते हैं।
अर्थ-मन की भ्रान्ति नहीं मिटने से वही दिन गिनने पड़ते हैं जिनमें मन विलय को प्राप्त नहीं है, और इसीलिए अक्षय, निरामय, परमगति आज भी उपलब्ध नहीं है।
. भावार्थ-वस्तु का स्वरूप जैसा है वैसा नहीं समझना, यही भ्रान्ति है। आत्मा ज्ञानानन्द स्वरूपी वस्तु है, लेकिन उसे तरह-तरह की इच्छाओं वाला, परेशान समझना
1. अ, क, स अखइ; द अखय; ब अक्खड़; 2. अ भग्गि; क, ब, स भग्गी; द भग्गा; 3. अ भत्तडी; क, द भंतडी; ब भातडी; स भांतडी; 4. अ दियहडा; क, द, स दिवहडा; ब दिवडा; 5. अ भणति; क, द, ब, स गर्णति।
पाहुडदोहा : 199