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________________ वास्तव में बहुत बड़ा भ्रम है। यदि किसी को पागलपन की भ्रान्ति हो जाए, तो वह सदा अपने को रोगी समझने के कारण हमेशा दुःखी, परेशान ही रहेगा। इसी प्रकार से राग-द्वेष को अपना स्वरूप समझने वाले संसारी जीव को भ्रान्ति का बहुत बड़ा रोग अनादि से बना हुआ है। इस बीमारी को मिटाने का एक मात्र इलाज 'तत्त्वज्ञान' है। वस्तु की यथार्थता भासित होते ही अज्ञान व भ्रम कपूर की तरह उड़ जाता है। जब तक भ्रम व अज्ञान है, तब तक वास्तविकता भासित नहीं होती तथा विकल्पों का अम्बार लगा रहता है। तरह-तरह के विकल्पों के होने पर मन भटकता रहता है, कभी भी एक ज्ञेय पर स्थिर नहीं रहता। बार-बार उपयोग को भ्रमाने से मन में चंचलता तथा अस्थिरता बनी रहती है। पं. दीपचन्द शाह के शब्दों में "नट स्वाँग धरै नाचे है, स्वाँग न धरै तो पररूप नाचना मिटै। ममत्व तैं पररूप होय चौरासी का स्वाँग धरि नाचै है। ममत्व कौ मेंटि सहज पद को भेटि थिर रहै तौ नाचना न होय। चंचलता मेंटे चिदानन्द उघरे है, ज्ञान दृष्टि खुलै है। नेक स्वरूप में सुथिर भये गति भ्रमण मिटै है। तातें जे स्वरूप में सदा स्थिर रहें ते धन्य हैं।" (अनुभव प्रकाश, पृ. 27) तथा-"स्वसंवेदन स्थिरता करि उपज्यो रसास्वाद स्वानुभव सो अनन्त सुखमूल है। सो अनुभव धाराधर जागने पर दुःख-दावानल रंच भी नहीं रहता।" (वही, पृ. 62) सहजअवत्थहि करहुलउ जोइय जंतउ वारि। अखइ णिरामइ पेसियउ सई होसई संहारि ॥1710 शब्दार्थ-सहजअवत्थहिं-सहज अवस्था में; करहुलउ-(मन रूपी) ऊँट; जोइय-हे योगी!; जंतउ-जाते हुए (को); वारि-निवारो, रोको; अखइ-अक्षय; णिरामइ-निरामय (मे); पेसियउ-प्रविष्ट (होने पर); सइं-स्वयं होसइ-होगा; संहारि-विनाश, विलय। अर्थ-हे जोगी! सहज अवस्था में (प्रवेश करते हुए) जाते हुए इस मन रूपी ऊँट को रोको। अक्षय, निरामय में प्रविष्ट होने पर मन का अपने आप संहार हो जाएगा अर्थात् एक बार विलीन होने पर उसका अस्तित्व नहीं रहेगा। भावार्थ-मन बहुत चंचल है। 'ऊँट' मन का प्रतीक है। जैसी ऊँट में स्फूर्ति तथा चाल में गतिशीलता होती है, वैसे ही मन चंचल और कल्पनाशील है। उसे कहीं 1. अ सहज अवत्थइ; क, द सहज अवत्थहिं; ब, स सहज अवत्थई; 2. अ, द जोई; क, स जोइय; ब जोइ; 3. अ पेसिलउ; क, द, ब, स पेसियउ; 4. अ स; क, द, ब, स सई 5. अ होसिइं; क, द, ब, स होसइ। 200 : पाहुडदोहा
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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