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गूंगा कह नहीं सकता है, लेकिन अनुभव कर सकता है। इसी प्रकार परमात्मा से मिलन की बात कोई कह नहीं सकता। जो कहा नहीं जा सकता है, जिसका केवल स्वाद लिया जा सकता है, वह लिखा और पूछा भी नहीं जा सकता है। यदि कोई कुछ कहने का प्रयास करे और कदाचित् कुछ बताना भी चाहे, तो उसकी भाषा सांकेतिक ही होगी जो सामने वाले को समझ में नहीं आ सकती है और दो-चार संकेतों से कुछ समझ में आया तो वह चित्त में जमती नहीं है, बहुत अटपटी लगती है। सद्गुरु समझने वाले की इस कठिनाई को भली-भाँति समझते हैं। इसलिए वे सामने वाले को ऐसा समझाते हैं, जैसे अपने अज्ञानी मन को प्रतिबोध दे रहे हों। समझ में आने पर भी विरले ही इस ‘अकथ' को धारण करते हैं। वास्तव में गूढ़ रहस्यपूर्ण अनुभव सहज होने पर भी किसी अनुभवी को ही अनुभव से समझ में आता है। उसके लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह तीर्थ तथा तीर्थंकर के पास हो या सद्गुरु की शिक्षा मिलने पर ही वह समझ सकेगा? जो अपने स्वभाव के सन्मुख है, जिसे तत्त्वाभ्यासपूर्वक भेद-विज्ञान हो गया है, वह सत्य की या निज शुद्धात्मा की अनुभूति प्राप्त कर लेता है। इसके बिना सम्यग्दर्शन (धर्म का प्रारम्भ) नहीं होता
है।
कडइ सरिजलु जलहिविपिल्लउ। जाणु पवाणु पवणपडिपिल्लिउ* ॥ बोहु विबोहु तेम संघट्टई।
अवर हि उत्तउ ता णु' पयट्टइ ॥168॥ शब्दार्थ-कड्डइ-आकर्षित होता है; सरिजलु-नदी का पानी; · जलहि-विपिल्लिउ-समुद्र द्वारा विपरीत दिशा में प्रेरित किया गया; जाणु-यान, जहाज; पवाणु-उच्च, प्रामाणिक; पवणपडिपिल्लिउ-पवन से प्रेरित किया गया; बोहु-बोध; विबोहु-विबोध; तेम-वैसे ही, उसी प्रकार; संघट्टइ-संघर्ष होता है; अवर-अन्य; हि-ही; उत्तउ-उक्त, कहा गया; ता णु-वही; पयट्टइ-प्रवृत्त हो जाती है।
अर्थ-समुद्र के द्वारा विपरीत दिशा में प्रेरित होने से नदी का जल खिंचता है तथा बड़े-बड़े भारी जहाज भी पवन से प्रेरित होकर चल पड़ते हैं। इसी प्रकार जब बोध और विबोध का संघर्ष होता है, तब अन्य बात ही प्रवृत्त हो जाती है।
1. अ वट्टइ, क, द, ब, स कहइ; 2. अ, क, द, स पवणपडिपिल्लिउ; व पवणपडिपेल्लिय; 3. अ, क संवट्टइ, द, ब, स संघट्टइ; 4. अ, क, व ताण; द ता णु; स तणु।
पाहुडदोहा : 197