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ही शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है। अनुभव निर्विकल्प होता है। जो जीव के शुद्धस्वरूप का अनुभव करता है, उसके ज्ञान में सकल पदार्थ उद्दीप्त होते हैं, उसके भाव अर्थात् गुण-पर्याय, उनसे निर्विकार रूप अनुभव है। निरुपाधिरूप से जीवद्रव्य जैसा है, वैसा ही प्रत्यक्षरूप से आस्वाद आता है। शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने पर जिस प्रकार नयविकल्प मिटते हैं, उसी प्रकार समस्त कर्म के उदय से होने वाले जितने भाव हैं, वे भी अवश्य मिटते हैं, ऐसा स्वभाव है। कोई ऐसा मानेगा कि जितनी ज्ञान की पर्याय है वे समस्त अशुद्ध रूप हैं सो ऐसा तो नहीं, कारण कि जिस प्रकार ज्ञान शुद्ध है, उसी प्रकार ज्ञान की पर्याय वस्तु का स्वरूप है; इसलिए शुद्ध स्वरूप है। परन्तु एक विशेष-पर्याय मात्र का अवधारण करने पर विकल्प उत्पन्न होता है; अनुभव निर्विकल्प है। इसलिए वस्तुमात्र अनुभवने पर समस्त पर्याय भी ज्ञानमात्र है। इसलिए ज्ञानमात्र अनुभव योग्य है। अनुभव ही चिन्तामणि रल है।” .
जं लिहिउ' ण पुच्छिउ कहण' जाइ, कहियउ कासु वि णउ चित्ति ठाइ। अह गुरुउवएसें चित्ति ठाइ, तं तेम धरंतह कहिमि ठाइ ॥167॥
शब्दार्थ-जं-जो (अनुभव); लिहिउ-लिखा (जाता); ण पुच्छिउ-न पूछा (जाता है); कहण-कहा (नहीं); जाइ-जाता है; कहियउ-कहा हुआ; कासु वि-किसी के भी; णउ-नहीं; चित्ति-चित्त में; ठाइ-ठहरता है; अह-अथवा; गुरु उवएसें-गुरु के उपदेश से चित्ति-चित्त में; ठाइ-ठहरता है; तं-उसे; तेम-उसी तरह (वैसा ही) धरंतह-धरने वालों, धारण करने के; कहिमि-कहीं भी (किसी भी भूमिका में); ठाइ-स्थित (हो)।
अर्थ-जो किसी प्रकार लिखा, पूछा तथा कहा नहीं जाता और किसी प्रकार उसे कहा भी जाए, तो वह किसी के चित्त में नहीं ठहरता। यदि गुरु उपदेश देते हैं, तो ही चित्त में ठहरता है। फिर, धारण करने वाले कहीं भी स्थित हों।
भावार्थ-मर्म की बात अकथ्य होती है, वह कहने में नहीं आती है। वास्तव में अनुभव की बात ठीक से पूरी तरह कही नहीं जा सकती है। उसके विषय में यही कहा जा सकता है
"गूंगे केरी शर्करा बैठ खाइ, मुस्काय।"
1. अ लहिउ; क, द, स लिहिउ; व लिहियउ; 2. अ, स कहण; क, द, व कहव; 3. अ कहिउ; क, द, ब, स कहियउ; 4. अ गुरुउवएसह; क, द, स गुरुउवएसें; व गुरुउवएसिं।
196 : पाहुडदोहा