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________________ (आगम) के कर्ता हैं, और इसीलिए यथार्थ में देव हैं। वे सदा काल परम सुख में विराजते हैं। ऐसे देव को ही परमेष्ठी कहते हैं। उनके कई नाम हैं-सिद्ध भगवान्, परमनिरंजन, परमज्योति, सर्वज्ञ, वीतराग, शास्ता आदि। जैसे मेघ बिना किसी प्रयोजन के लोगों के पुण्य के उदय से प्रचुर जल की वर्षा करते हैं, वैसे ही भगवान् लोगों के पुण्य के निमित्त से विभिन्न देशों में विहार करते हैं और धर्मामृत की वर्षा करते हुए आत्महित तथा परमोपकार हेतु उपदेश देते हैं। वास्तव में शास्त्र भी उसे कहते हैं जो सर्वज्ञ, वीतराग का कहा हुआ है और जिसका उल्लंघन वादी-प्रतिवादी के द्वारा नहीं किया जा सकता है। एक्कु सुवेयइ अण्णु ण वेयइ। तासु चरिउ णउ जाणहि देवइं ॥ जो अणुहवइ सो जि* परियाणइ। पुच्छंतहं समित्ति को आणइ ॥166॥ शब्दार्थ-एक्कु-एक (परमतत्त्व को); सुवेयइ-अच्छी तरह जानता है; अण्णु-अन्य (को); ण-नहीं; वेयइ-जानता है, अनुभवता है (वेदति); तासु-उस (अनुभवी) का; चरिउ-चरित; णउ-नहीं; जाणहि-जाना जाता है; देवइं-देवों के द्वारा: जो अणहवइ-जो अनुभवता है; सो जि-वही; परियाणइ-भलीभांति जानता है (परिजानाति); पुच्छंतह-पूछने वालों की; समित्ति-संतृप्ति; को-कौन; आणइ-ला सकता है, दे सकता है। .. अर्थ-एक. (परमतत्त्व) को भली-भाँति जानता है, अन्य कुछ नहीं जानता। ऐसे (तत्त्वज्ञानी का) व्यक्ति का चारित्र देव भी नहीं जानते। वास्तव में तो जो अनुभव करता है, वही जानता है। पूछने वालों की तृप्ति कौन कर सकता है? भावार्थ-वस्तुतः आत्मतत्त्व स्वानुभवगम्य है। वाद-विवाद या पूछ-परख से वह उपलब्ध नहीं होता। निज शुद्धात्मतत्त्व ही परमतत्व है। उसे जान लेने पर, उसका • अनुभव हो जाने पर कुछ जानने योग्य नहीं रहता। स्वानुभव की ऐसी ही महिमा है। पं. राजमलजी पाण्डे के शब्दों में “मिथ्यात्वकर्म का रस पाक मिटने पर मिथ्यात्व भावरूप परिणमन मिटता है, तब वस्तुस्वरूप का प्रत्यक्षरूप से आस्वाद आता है, उसका नाम अनुभव है। अनुभव होने पर पर्याय के साथ का संस्कार छूट जाता है। विभाव परिणाम के मिटने पर 1. अ चेईय; क, द, ब, स वेयइ; 2. अ चरणउ; क, द, ब, स चरिउ णउ; 3. अ, ब जाणहि; क जाणइ; द, स जाणहिं; 4. अजः क, द. ब. स जि। पाहुडदोहा : 195
SR No.090321
Book TitlePahud Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1998
Total Pages264
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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