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निर्मल आत्मा के स्वभावरूप तीर्थ में स्नान करने से पवित्रता होती है। (बोधपाहुड, गा. 26) जैसे जल से तन की निर्मलता होती है, वैसे ही तीर्थ-क्षेत्रों की वन्दना । से मन निर्मल होता है। परन्तु आत्म-शुद्धि हेतु भावतीर्थ में ही डुबकी लगानी पड़ती
जोइय हियडइ जासु पर' एक्कु ण णिवसइ देउ। जम्मणमरणविवज्जियउ किम पावइ परलोउ ॥165॥
शब्दार्थ-जोइय-हे योगी!; हियडइ-हृदय (में) जांसु-जिसके;. पर--लेकिन; एक्कु-एक (भी) ण-नहीं; णिवसइ-रहता है। देउ-देव; जम्मणमरण-जन्म-मरण (से); विवज्जियउ-रहित (विवर्जित); किम-कैसे; पावइ-पाता है; परलोउ-परलोक; उत्तम गति।
अर्थ-हे जोगी! जिसके हृदय में जन्म-मरण से रहित एक देव निवास नहीं करता, वह परलोक (उत्तम गति) कैसे प्राप्त कर सकता है?
भावार्थ-देव निर्दोष कहा गया है। जन्म होना, मरना, भूख-प्यास लगना ये संसार की सबसे बड़ी बीमारियाँ हैं। जहाँ पर जन्म, बुढ़ापा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा, रोगादि नहीं हैं, वह सिद्धगति कही जाती है। सिद्ध सभी प्रकार के कर्म-मल से रहित ही होते हैं। बिना सम्यग्दर्शन के साधु नहीं होता और साधुत्व के बिना तप नहीं होता और संयम, तपके बिना पूर्ण वीतरागता की उपलब्धि नहीं होती। पूर्ण वीतरागी हुए बिना कोई जन्म-मरण के दुःखों व दोषों का अभाव नहीं कर सकता है। पूर्ण वीतराग होते ही कैवल्य-बोध होता है और केवलज्ञान होने के पश्चात् जीवन्मुक्त सर्वज्ञ परमात्मा होते हैं। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥
रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक 5 अर्थात-धर्म का मूल परमात्मदेव हैं। उनके तीन गुण हैं-निर्दोषत्व, सर्वज्ञत्व, परम हितोपदेशकत्व। उनके क्षुधा, तृषा, विस्मय स्वेद, शोक, रोग, मल-मूत्र, मोह, भय, निद्रा, रति, राग-द्वेष, चिन्ता, खेद, मद, जन्म-मरण आदि अठारह दोषों का अभाव है। वे एक समय में त्रिकालवर्ती सभी द्रव्यों और उनके गुण-पर्यायों को एक साथ प्रत्यक्ष जानते हैं, इसलिए परम हितोपदेशी हैं और मूल द्वादशांग रूप जिनवाणी
1. अ, स पर; क, द, ब ण वि 2. अ एकु; क, द इक्कु, ब, स एक्कु; 3. अ, ब, स द किम; क सो; 4. क, द, ब, स पावइ; अ पाईय।
194 : पाहुडदोहा