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है, वह भावतीर्थ है। भावतीर्थ में तीनों गुण हैं। जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहा हुआ द्वादशांग रूप श्रुतज्ञान भावतीर्थ कहा गया है जो स्वयं के भावों में उपलब्ध होता है। (मूलाचार, गा. 72) यद्यपि बाहर के तीर्थ-क्षेत्र वन्दन करने योग्य हैं, तथापि आत्मस्वभाव तथा परमात्मा की उपलब्धि हेतु भावतीर्थ ही कार्यकारी है।
तित्थई तित्थ भमेहि वढ धोयउ चम्मु जलेण। एहु' मणु किम धोएसि तुहुँ मइलउ पावमलेण ॥164॥
शब्दार्थ-तित्थई-तीर्थों से; तित्थ-तीर्थ (में); भमेहि-घूमे; वढ-हे मूर्ख; धोयउ-धोया; चम्म-चाम, चमड़े (को); जलेण-पानी से; एहु-इस; मणु-मन (को); किम-क्या; धोएसि-धोते हो (धोया जाता है); तुहुं-तुम (से); मइलउ-मैला है (जो); पावमलेण-पाप मैल से। ___अर्थ-हे मूर्ख! तुमने एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में भ्रमण किया है और शरीर के चमड़े को जल से धोया है। किन्तु जो मन पाप रूपी मल से मैला है, उसे किस प्रकार धोएगा?
भावार्थ-अनेक मनुष्य ऐसा समझते हैं कि यह शरीर स्नान करने से पवित्र होता है, लेकिन यह सर्वथा उनकी भूल है। क्योंकि उत्तम सुगन्धित पुष्पमाला भी शरीर पर धारण करने मात्र से जब स्पर्श करने योग्य नहीं रहती, तब जो शरीर भीतर में मल-मूत्र, रक्त, चर्बी आदि घिनावने तथा दुर्गन्धित पदार्थों से भरा हुआ है, वह जल के स्नान मात्र से कैसे शुद्ध हो सकता है? जितने भी लोक में अपवित्र पदार्थ हैं, उन सबका स्थान यह शरीर है। आत्मा तो स्वभाव से अत्यन्त पवित्र है, इसलिए इसकी पवित्रता के लिए स्नान करना व्यर्थ ही है। शरीर निकृष्ट है, वह जल से वास्तव में शुद्ध नहीं हो सकता और आत्मा स्वभाव से शुद्ध ही है, फिर किसकी शुद्धता के लिए स्नान किया जाता है? शुद्धि का अर्थ निर्मलता है और निर्मलता उसी समय हो सकती है, जब सभी मलों का नाश हो जाए। जल से किए गये स्नान से यथार्थ में निर्मलता नहीं होती, किन्तु मलों की (पापों की) उत्पत्ति होती है। स्नान करने से अनेक जीवों का विध्वंस होता है। अतः पाप ही होता है।(पद्मनन्दिपंचविंशति, स्नानाष्टक, 1-3)
आचार्य कुन्दकुन्द स्पष्ट रूप से कहते हैं कि व्रत, सम्यक्त्व से विशुद्ध और पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, लोक-परलोक के विषय-भोगों की वांछा से रहित
1. अ, द, ब, स तित्थ; क तित्थई भमहि; 2. अ यहुः क, द, ब, स एहु; 3. अ बुहु; क, द तुहूंब, स तुहु।
पाहुडदोहा : 193