________________
में द्रव्य का आलम्बन न होकर आत्मस्वभाव का अवलम्बन होता है। अतः आत्मा-परमात्मा में भेद लक्षित न होकर समरसता की स्थिति स्थापित हो जाती है।
देवलु' पाहणु तित्थजलु' पोत्थई सव्वई कव्वु। वत्थुजु दीसइ कुसुमियउ इंधणु होसइ सव्वु ॥162॥
शब्दार्थ-देवलु-देवालय, मन्दिर (में); पाहणु-पाषाण (मूर्ति है); तित्थजलु-तीर्थ (में) जल (है); पोत्थई-शास्त्रों (में); सव्वइं-सभी (में); कव्वु-काव्य है; वत्यु-वस्तु: जु-जो; दीसइ-दिखती है; कुसुमियउ-विकसित, खिली हुई; इंधणु-ईंधन; होसइ-होगी; सव्वु-सब।
अर्थ-देवालय (मन्दिर) में पाषाण (पत्थर) है, तीर्थ में जल और सभी शास्त्रों में काव्य है। जो वस्तु अभी विकसित, खिली हुई दिखती है, वह सब ईंधन हो जाएगी।
भावार्थ-मुनि योगीन्द्रदेव कहते हैं कि “देव तो भावों में है, मूर्ति में नहीं" है। उनके ही शब्दों में
देउ ण देउले णवि सिलए णवि लिप्पइ णवि चित्ति। अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम चित्ति ॥-परमात्मप्रकाश 1, 123
अर्थात परमात्मा देवालय में नहीं है, पत्थर की मूर्ति में भी नहीं है, लेप में भी नहीं है, चित्राम की मूर्ति में भी नहीं है। वह देव अविनाशी है, कर्म-अंजन से रहित है, केवलज्ञान से पूर्ण है, ऐसा निज परमात्मा समभाव में स्थित है। ... वास्तविकता यह है कि जिनबिम्ब निज शुद्धात्मा में ही विराजमान है। प्रतिमा भावों में है। इसलिए पूजा में भाव ही कारण हैं। एक जिन या जिनालय की वन्दना करने से सबकी वन्दना हो जाती है। पूजा का एक मात्र प्रयोजन यही है कि जिनदर्शन के निमित्त से निजदर्शन की उपलब्धि होती है।
. आज संयोग में जो वैभव दिखलाई पड़ता है, कल वह बना रहने वाला नहीं है। एक फूल जो आज वृक्ष की डाली पर फूल रहा है, कल वह झड़ जाएगा। इस परिवर्तनशील भौतिक जगत् में कोई भी अवस्था शाश्वत या चिरस्थायी नहीं है। इसलिए जो स्थिति आज है, वह कल नहीं है। जिस प्रकार जलाऊ लकड़ी जलकर
1. अ, स देवलु क, द, व देवलि; 2. अ तित्थजडु, क तित्यि जलु, द, ब, स तित्थजलु; 3. अ, स पोत्यई क, द, व पुत्थई; 4. अ, द, स कब्बु क काउ; व कव्व; 5. अ, ब वत्थ; क सव्वु वि; द, स वत्यु; 6. अ, इंधण; क, द, ब, स इंधणु।
पाहुडदोहा : 191