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पत्तिय तोडहि तडतडाई णाई पइट्टा उटु'। एव ण जाणहि मोहिया को तोडइ को तुटु ॥159॥
शब्दार्थ-पत्तिय-पत्ते (को); तोडहि-तोड़ते हो; तडतडाइ-तड़तड़ा (कर) णाई-मानो; पइट्ठा-प्रवेश किया; उट्ट-ऊँट ने; एव-ऐसे; ण जाणहि-नहीं जानते हो; मोहिया-मोहित हुए; को तोडइ-कौन तोड़ता है; को-कौन; तुट्ट-टूटता है। ___अर्थ-तुम सहसा पत्तियों को ऐसे तड़-तड़ाकर तोड़ रहे हो मानो ऊँट ने ही .. प्रवेश किया हो। तुम यह नहीं जानते हो कि मोह के अधीन होकर कौन तोड़ता है और कौन टूटता है?
भावार्थ-वनस्पति, वृक्षादि चेतन हैं। उनमें भी मनुष्य की भाँति आत्मा है। इसलिए व्यर्थ में उनको नहीं तोड़ना चाहिए। एक इन्द्रिय स्पर्शन से सहित पृथ्वी, वनस्पति, जल, अग्नि और वायु अनादि से ही 'काय' का अवगाह होने से जीव की मुख्यता से चेतन कहे जाते हैं। वास्तव में उनमें विद्यमान 'ज्ञान' जीव है और शरीर 'अजीव' या जड़ है। निश्चय से चैतन्य ही प्राण है। व्यवहार से शरीर, वचन, मन, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास प्राण हैं। व्यवहार में इन प्राणों की सुरक्षा के लिए अहिंसा धर्म का उपदेश दिया जाता है। क्योंकि वस्तुतः तो कोई जीव मरता नहीं है। 'जीव' का अर्थ है-सदा जीवित रहने वाला। कोई जीव किसी अन्य जीव को अपने वास्तविक प्राण से कभी अलग नहीं कर सकता है। अतः कौन वनस्पति आदि को तोड़ने वाला है और कौन टूटता है?
इन्द्रियाँ आज हैं, कल नहीं भी हो सकती हैं। सिद्ध परमात्मा के मन नहीं होता। उनके व्यवहार से कहे जाने वाले दस प्राणों में से एक भी प्राण नहीं होता। परन्तु व्यवहार व्यवहार से चलता है। यदि प्राणों की रक्षा, दया-दान आदि का उपदेश न दिया जाए, तो फिर समाज बिखर कर छिन्न-भिन्न हो जाएगा। एक प्राणी दूसरे प्राणी को मारकर खा जाएगा। अतः समाज, धर्म या लोक-पालन की दृष्टि से अहिंसा का विशेष महत्त्व है। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों ही उससे सुरक्षित रहते हैं। दोहे में व्यंग्य प्रधान है। व्यंग्य से ही यह अर्थ ध्वनित है कि हिंसा नहीं करनी चाहिए।
1. अ तोडिइं; क तोउहि; द, ब स तोडि; 2. अ, स तडतडाइ; क तडतडह; द तडतडइ; व तडतइइ; 3. अ परट्ठा; क, द, ब, स पइट्ठा; 4. अ उंटु; क, द, स उट्ट; ब डंडु; 5. अ जाणइ; क, द, ब, जाणहि।
188 : पाहुडदोहा