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साथ नहीं हो सकते। वास्तव में इन्द्रियों के प्रसार का निवारण करने में ही परमार्थ है । ( दो. 200 ) यही नहीं, जो निज शुद्धात्म स्वभाव को छोड़कर विषयों का सेवन करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है । (दो. 206) युक्ति और अनुभव से उक्त बात सिद्ध करते हुए कहते हैं - दो मार्गों से जाना नहीं होता। दो मुँह वाली सुई से कथरी (कथा ) की सिलाई नहीं होती । हे अजान ! दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं - इन्द्रिय-सुख और मोक्ष भी । (दो. 214)
रचनाकार
'पाहुडदोहा' की रचना करने वाले कवि ने 'रामसीहु मुणि इम भणइ' (दो. 212) कहकर अपने नाम का उल्लेख किया है। अतः यह उनकी ही रचना है। रचना का नाम 'पाहुडदोहा' ही है । यद्यपि पूर्ण जानकारी के अभाव में कहीं किसी ने इसका नाम 'दोहा पाहुड' लिख दिया है, किन्तु यह नाम ठीक नहीं है। डॉ. हीरालाल जैन ने नाम के साथ 'सिंह' शब्द संलग्न होने से यह अनुमान किया है कि मुनि रामसिंह अर्हद्बलि आचार्य द्वारा स्थापित 'सिंह' संघ के थे । किन्तु यह भी अनुमान किया
सकता है कि कवि ने परम्परागत नाम का उल्लेख किया हो। इस प्रकार के नाम उत्तर भारत में पंजाब में विशेषतः मिलते हैं । सम्भव है कि वहाँ से आकर कवि राजस्थान में बस गया हो। डॉ. जैन के शब्दों में “ ग्रन्थ में 'करहा' (ऊँट) की उपमा बहुत आई है तथा भाषा में भी राजस्थानी हिन्दी के प्राचीन मुहावरे दिखाई देते हैं। इससे अनुमान होता है कि ग्रन्थकार राजपूताना प्रान्त के थे ।”
रचना-काल
यह सुनिश्चित तथा प्रमाणित है कि आचार्य कुन्दकुन्द के 'समयपाहुड', 'पवयणपाहुड' आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों का सार लेकर तथा 'परमात्मप्रकाश' की भाषा-शैली से प्रभाव ग्रहण कर मुनि रामसिंह ने 'पाहुड दोहा' की रचना की थी ।
आचार्य कुन्दकुन्द की सुप्रसिद्ध रचनाओं के समर्थ टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र दसवीं शताब्दी के महान् विद्वान् तथा कवि थे। उन्होंने अपनी मौलिक कृति 'पुरुषार्थ सिद्धयुपाय' की रचना 904 ई. में की थी।' अतः उनका समय 904-962 ई. अनुमानित है ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने 'पंचत्यिकायपाहुड' की गा. 146 की टीका में 'पाहुडदोहा' का निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है
अंतो णत्यि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा । तण्णवरि सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणइ ॥
1. डॉ. हीरालाल जैन : पाहुडदोहा की प्रस्तावना, पृ. 27-28 से उद्धृत, कारंजा, 1933 2. एम. विण्टरनित्सः ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, जिल्द 2, पृ. 564
प्रस्तावना : 17